आलोचना समाज को कमजोर नहीं मजबूत बनाती है

punjabkesari.in Saturday, Jun 12, 2021 - 05:44 AM (IST)

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के एक मामले को रद्द करते हुए कहा कि पत्रकारों को राजद्रोह के दंडात्मक प्रावधानों से तब तक सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, जब तक कि उनकी खबर से हिंसा भड़कना या सार्वजनिक शांति भंग होना साबित न हुआ हो। किसी भी नागरिक को सरकार की आलोचना करने का हक है, बशर्ते वह लोगों को सरकार के खिलाफ हिंसा करने के लिए प्रेरित न करे।

गौरतलब है कि विनोद दुआ ने एक यू-ट्यूब चैनल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्र सरकार के खिलाफ टिप्पणी की थी। इस टिप्पणी के खिलाफ शिमला के एक थाने में एफ.आई.आर. दर्ज कराई गई थी। 

कोर्ट ने कहा कि अब वह वक्त नहीं है, जब सरकार की आलोचना को देशद्रोह माना जाए। ईमानदार व विवेकशील आलोचना समाज को कमजोर नहीं, मजबूत बनाती है। यह मामला तो केवल एक उदाहरण भर है। इस दौर में पहले भी एेसे अनेक मामले सामने आए हैं, जब सत्ता ने अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की कोशिश की। इस तरह के मामलों ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि इस युग में भी सत्ता का मूल चरित्र बदला नहीं है। 

समय आने पर वह बिल्कुल राजशाही की तरह व्यवहार करती है। समाज को दिशा देने की बजाय वह समाज को हांकने का काम करने लगती है और यदि जरूरत पड़े तो विरोधी विचारधाराओं वाली समाज की इकाइयों पर विभिन्न तौर-तरीकों से हंटर चलाने से भी परहेज नहीं करती। जब सत्ता का नशा सिर चढ़कर बोलता है तो सत्ता में बैठे राजनेता घोषित उद्देश्यों को एक तरफ उठाकर रख देते हैं और अघोषित उद्देश्यों को पूर्ण करने में लग जाते हैं। 

अघोषित उद्देश्यों को पूर्ण करने के चक्कर में उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहता कि सत्ता का रास्ता समाज से होकर ही गुजरता है। बिना समाज के सत्ता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। समाज मात्र एक विचारधारा का नाम नहीं है। अनेक विचारधाराआें के समन्वय से समाज का निर्माण होता है। विभिन्न विचारधाराओं के समन्वय का नाम ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र मेें विरोधी विचारधाराओं को भी स मान दिया जाता है। विरोधी विचारधाराआें को स मान देने से ही लोकतंत्र मजबूत होता है और अन्तत: समाज के विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। 

सत्ताएं शुरू से ही कुछ लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों को प्रोत्साहन एवं प्रश्रय देती रही हैं। सत्ता से सुविधा प्राप्त लेखक एवं पत्रकार सत्ता का गुणगान भी करते रहे हैं। दोनों ही पक्ष नैतिकता को ताक पर रख कर एक-दूसरे से फायदा उठाते हैं। इस माहौल में सत्ता को यह भ्रम हो जाता है कि सभी लेखक एवं कलाकार उसी की तरह सोचेंगे और उसकी विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाएंगे। 

जब लेखक सत्ता की विचारधारा का विरोध करते हुए अपने निजी तर्क जनता के सामने रखते हैं तो सत्ता बौखला जाती है अपने स्तर से नीचे जाकर लेखकों एवं कलाकारों को सबक सिखाने के विभिन्न हथकंडे अपनाने लगती है। एेसे में सत्ता द्वारा लेखकों एवं कलाकारों पर सा प्रदायिक माहौल बिगाडऩे और जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाना ही सबसे आसान होता है। जब तक लेखक सत्ता की विचारधारा के अनुरूप लिखता रहता है तब तक न तो सा प्रदायिक माहौल बिगडऩे का खतरा रहता है और न ही जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचने का डर। अब समय आ गया है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विभिन्न टिप्पणियों से भावनाओं के आहत होने की संभावना की पुन: समीक्षा करें। 

लोकतंत्र में अगर सत्ता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं देती है तो यह तानाशाही है। इसलिए सत्ता को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए। सवाल यह है कि भावनाआें के आहत होने की संभावना को आंकने का पैमाना क्या है? क्या सत्ता या फिर किसी व्यक्ति के कह देने या आरोप लगा देने भर से यह माना जा सकता है कि समाज की भावनाएं आहत हुई हैं? 

क्या ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर गहन चिंतन की जरूरत नहीं है? ऐसे मुद्दों पर यदि सरकार समाज से धैर्य की उ मीद रखती है तो क्या समाज को इतना भी अधिकार नहीं है कि वह सरकार से भी धैर्य और ग भीरता की उ मीद रखे? ऐसे संवेदनशील आरोपों पर लेखक या फिर अन्य व्यक्ति को गिर तार करने या मुकद्दमा चलाने से पहले किसी न्यायाधीश  के माध्यम से जांच कराई जानी चाहिए। 

इस जांच में निष्पक्षता के साथ यह परखा जाना चाहिए कि टिप्पणी करने वाले व्यक्ति का प्रयोजन क्या है? वह जानबूझ कर माहौल खराब करने के लिए यह टिप्पणी कर रहा है या फिर किसी मुद्दे पर निष्पक्षता के साथ अपनी राय रख रहा है? इस जांच में टिप्पणी करने वाले व्यक्ति का पिछला इतिहास भी देखा जाना चाहिए। व्यक्ति के व्यक्तित्व और पिछले इतिहास से काफी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। 

इन सब बातों की जांच करने के बाद ही गिर तारी/मुकद्दमा करने या न करने का निर्णय लिया जाना चाहिए। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस दिशा में अभी तक कोई सार्थक पहल नहीं हुई है और इसका खामियाजा लेखकों, पत्रकारों एवं कलाकारों को उठाना पड़ रहा है। यदि लेखकों पर जानबूझकर पूर्वाग्रह की भावना से पाबंदियां लगाई जाएंगी तो लेखन का वास्तविक उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाएगा। 

सरकारों को लगातार ऐसी कोशिश करती रहनी चाहिए, जिससे विरोधी विचारधारा वाले नागरिकों, पत्रकारों, लेखकों और कलाकारों में भी विश्वास स्थापित हो सके। विरोधी विचारधाराओं वाले लोगों से संवाद की गुंजाइश हर हाल में कायम रहनी चाहिए। सत्ता का अर्थ किसी एक दल का संगठन नहीं है। सत्ता पूरे देश की और पूरे देश के लिए होती है। अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की कोशिश सत्ता को संदिग्ध ही बनाती है।-रोहित कोशिक


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