देश जनजाति समुदाय की आवाज भी सुने

punjabkesari.in Monday, Apr 10, 2023 - 04:16 AM (IST)

लगातार घटित घटनाओं के कारण कुछ ऐसे आंदोलन सुर्खियां नहीं बनते जिन्हें वास्तव में चर्चा में होना चाहिए। अलग-अलग राज्यों के स्थानीय अखबारों और टीवी चैनलों को देखें तो जनजातियों यानी आदिवासियों के बड़े-बड़े सम्मेलन हो रहे हैं। आदिवासी शब्द पर विवाद हो रहे हैं क्योंकि यह भारतीय इतिहास के अनुकूल नहीं है। इसके लिए जनजाति वनवासी शब्द उपयुक्त है। पूरे देश में इन दिनों जनजाति सुरक्षा मंच द्वारा डीलिस्टिंग आंदोलन चलाया जा रहा है। 

डीलिस्टिंग का अर्थ क्या है, संविधान के अनुच्छेद 342 जो अनुसूचित जनजाति के लिए है उनसे धर्म परिवर्तन करने वालों को बाहर कर दिया जाए। आप अनुसूचित जनजाति की सूची यानी लिस्ट में तभी तक हैं जब तक  धर्म नहीं बदला है। जैसे ही आपने धर्म बदला आपको अनुसूचित जनजाति की सूची से डीलिस्ट यानी बाहर कर दिया जाए। इस आंदोलन की रैलियों में उपस्थिति को देखें तो पता चलेगा कि इसे व्यापक समर्थन प्राप्त है। अनुसूचित जनजाति से जुड़े सभी राज्यों की राजधानियों में भी महारैली का आयोजन जनजाति सुरक्षा मंच कर रहा है। 

जिन लोगों ने अनुसूचित जनजाति के रोजगार आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थिति पर अध्ययन किया है उनका निष्कर्ष यही है कि ए और बी श्रेणी की ज्यादातर नौकरियां धर्मांतरित ईसाई समुदाय को मिली हैं। आम अनुसूचित जनजाति के लोग दूसरा धर्म अपना चुके लोगों के कारण अधिकारों से वंचित हैं। धर्मांतरित होते हुए भी अनुसूचित जाति का दर्जा पाने वाले लोग प्रभाव से दूसरों को भी अपने धर्म में लाने की कोशिश करते हैं। 

संविधान का अनुच्छेद 341 अनुसूचित जाति से संबंधित है। इसमें धर्मांतरित होते ही संबंधित व्यक्ति को अनुसूचित जाति की सूची से बाहर कर दिया जाता है। यही प्रावधान अनुच्छेद 342 में नहीं है। मांग यही है कि 342 को भी 341 की तरह संशोधित कर दिया जाए। गहराई से देखें तो इस मांग को स्वीकारने में समस्या नहीं है। जाति की व्यवस्था हिंदू समाज में है। जाति के आधार पर हिंदू समाज में ही पिछड़े वंचित रहे हैं। ईसाइयत या इस्लाम में जाति नहीं है। तो वहां जाति के आधार पर कोई वंचित हो ही नहीं सकता।

अगर कोई ईसाई या इस्लाम या अन्य धर्म अपनाता है तो उसके साथ उसकी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार संवैधानिक व्यवहार किया जाना चाहिए। जनजातियों के सामने इनसे समस्याएं पैदा हुई हैं, जनजाति सुरक्षा मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, अन्य संगठनों के प्रचार से व्यापक जन जागरण भी हुआ है और वे संघर्ष में शामिल हो रहे हैं। हालांकि यह आंदोलन 2003 से ही आरंभ हो गया था। 2006 में जनजाति सुरक्षा मंच की स्थापना के बाद आंदोलन तेज हुआ।

2009 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को 28 लाख हस्ताक्षरों का ज्ञापन दिया गया जिसमें सरकार से संविधान में संशोधन कर डीलिस्टिंग की मांग की गई। 30 अक्टूबर, 2018 को कार्तिक उरांव की जयंती पर जिलाधिकारियों को निवेदन किया गया। पिछले वर्ष जनजाति सुरक्षा मंच ने लोकसभा एवं राज्यसभा के सांसदों के बीच अभियान चलाया और 450 सांसदों से भेंट कर यह विषय रखा। इसके बाद कई सांसदों ने दोनों सदनों में इस विषय को उठाया भी। देश में लगभग 11 करोड़ जनजाति समाज की आबादी है। इनमें अपनी संस्कृति, परंपराओं, मान्यताओं, श्रद्धा, धर्म आदि को बचाकर रखने वाले धर्मांतरित लोगों के कारण आर्थिक सामाजिक विकास में पिछड़ते जा रहे हैं। मूल जनजाति तथा धर्मांतरित के बीच संघर्ष और टकराव भी सामने आता है। देखा जाए तो धर्मांतरित लोग जनजाति कहलाए ही नहीं जाने चाहिएं। 

धर्मांतरित ईसाइयों को आरक्षण का लाभ मिलने के कारण जनजाति समाज में विषमता बढ़ी है। अध्ययन यह भी बताता है कि केंद्र सरकार की एक श्रेणी की नौकरियों का ज्यादा लाभ पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल राज्यों को ही मिला है। आबादी कम होने के बावजूद ज्यादातर नौकरियां इनके हिस्से जा रही हैं। इसका कारण समझना कठिन नहीं है। समय-समय पर न्यायालयों ने भी इसके संबंध में फैसले दिए हैं।

उदाहरण के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने केरल राज्य बनाम चंद्रमोहन मामले में स्पष्ट लिखा है कि धर्मांतरण के साथ पुरानी परंपराएं, रीति, कर्मकांड आदि त्यागने की स्थिति के बाद कोई व्यक्ति जनजाति का दर्जा खो देता है। ऐसे भी फैसले आए हैं जब स्थानीय चुनाव में न्यायालय ने अनुसूचित जनजाति की आरक्षित सीट से धर्मांतरित व्यक्ति को चुनाव लडऩे के योग्य नहीं माना। कारण भी दिया गया कि जनजाति क्षेत्रों में निर्वाचित व्यक्ति को स्थानीय परंपराओं का निर्वहन करना होता है जो धर्मांतरित व्यक्ति नहीं कर सकते। यही सच है। 

किसी को अनुसूचित जनजाति कैसे माना जाता है उसकी मूल बातें क्या हैं, प्रकृति पूजा पहली विशेषता है। ईसाई या इस्लाम धर्म-कर्म करने के बाद कोई प्रकृति पूजा कर नहीं सकता। दूसरी विशेषता है, पूर्वजों के रीति रिवाज का पालन करना। रीति-रिवाजों में धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सारे आयाम हैं जिनका पालन धर्मांतरित नहीं करते। तीसरा है आदिवासियों का पहनावा। ईसाई और इस्लाम ग्रहण करने के साथ पहनावा भी बदलने लगता है। जरा दूसरे तरीके से सोचिए। जैसा ऊपर बताया गया कि हिंदू समाज में जाति व्यवस्था है। 

किसी जाति का व्यक्ति ईसाई या मुसलमान बन गया तो क्या वह उसी जाति का अंग रहेगा कि जब ईसाई और इस्लाम मजहब में जाति व्यवस्था है ही नहीं तो वह रहेगा कैसे। ईसाई या मुसलमान बनने के बाद वह व्यक्ति उस जाति में नहीं रह सकता तो फिर अनुसूचित जनजाति का हिस्सा उसे मानना तर्क की किसी कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता। विडंबना देखिए, धर्मांतरित ईसाई और मुसलमान एक साथ अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक समुदाय का लाभ उठाते हैं। क्या इसे आप संविधान के तहत अवसरों की समानता का उदाहरण मान सकते हैं।-अवधेश कुमार
 


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