सहकारिता मंत्रालय कहीं नया राजनीतिक टूल न हो

punjabkesari.in Sunday, Jul 18, 2021 - 05:18 AM (IST)

हाल के दौर में सरकारों की, केंद्र की हो या राज्यों की, विश्वसनीयता काफी घटी है। इसका मुख्य कारण है सत्ता में बैठे नेताओं के दावों और जमीनी हकीकतों में फर्क। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ड्रीम प्रोजैक्ट ‘आयुष्मान भारत’ 3 साल पहले शुरू हुआ और कहा गया कि 50 करोड़ गरीबों को पांच लाख तक का मु त इलाज किसी भी निजी या सरकारी अस्पताल में होगा, सुनने में क्रांतिकारी लगा लेकिन कोरोना के डेढ़ साल में उत्तर प्रदेश में केवल 875 लोगों का ही इलाज हो सका। 

कोरोना पर इलाज में आयुष्मान योजना के तहत 2224 करोड़ रुपए खर्च हुए लेकिन इसमें से 2105 करोड़ रुपए केवल दक्षिण के चार राज्यों और महाराष्ट्र ने खर्च किया जबकि बाकी भारत के लिए मात्र 5 प्रतिशत ही खर्च किया गया। इसका कारण था योजनाओं और राज्यों की कमी जिनमें अधिकांश भाजपा -शासित थे, उदासीनता। भूलना नहीं चाहिए कि उत्तर भारत में गरीबी ज्यादा है लेकिन उतनी ही लचर शासन-व्यवस्था भी। जबकि दक्षिण के राज्य जैसे कर्नाटक कम गरीब है और जहां की आबादी उत्तर प्रदेश की एक-तिहाई से कम है लेकिन जहां के 1.50 लाख लोगों का इस योजना के तहत मु त इलाज हुआ। उत्तर भारत के बीमारू राज्यों में कोरोना मरीजों ने दक्षिण भारत के मुकाबले 42 गुना ज्यादा पैसा अपनी जेब से खर्च किया। 

सबसे ताज्जुब की बात यह है कि प्रधानमंत्री ने वाराणसी संबोधन में राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन की प्रशंसा करते हुए कहा कि राज्य सरकार का कोरोना प्रबंधन बेहद सराहनीय था। शायद वह मां गंगा की छाती पर बहती लाशें भूल गए क्योंकि राज्य में चुनाव है। पंचायत चुनाव करा कर कोरोना का सुपर-स्प्रैडर बनने में भी यह राज्य देश-विदेश में चर्चा में रहा और बाद में कांवड़ यात्रा जारी रखने की इसकी कई दिनों चली जिद भी राज्य सरकार की सोच बताती है लेकिन प्रधानमंत्री को इसमें भी विकास नजर आया। 

सहकारिता या राज्य-शक्ति के जरिए पैठ : एक अन्य ताजा उदाहरण लें। केंद्र में सहयोग नाम से नया मंत्रालय होगा। सरकार ने इसके पीछे उद्देश्य बताया जो देखने में तो पवित्र, सामयिक और अपेक्षित लगा- सहकार से समृद्धि तक। दावा है कि ‘यह मंत्रालय सहकारिता को असली जनांदोलन के रूप में समाज की जड़ों तक ले जाने में सहायक होगा’। पर इसको आगे बढ़ाने में दो मूल समस्याएं हैं। सरकार कानूनी रूप से कमजोर बुनियाद पर है, हालांकि इसके लिए यू.पी.ए.-2 की सरकार जि मेदार है, जिसने गलत ढंग से 12 जनवरी, 2012 को संसद से 97वां संविधान संशोधन पारित करा कोआप्रेटिव शब्द अनुच्छेद 19(1)(ग) में ही नहीं, नीति-निर्देशक तत्व में अनुच्छेद 43बी और अध्याय 9(बी) के रूप में जोड़ दिया। सच आज भी यही है कि यह कोआप्रेटिव राज्य सूची की एंट्री 32 में स्पष्ट रूप से अंकित है, यानी यह राज्यों के अधीन आता है। तत्कालीन सरकार ने यह सब तब किया जब देशव्यापी अन्ना 

आन्दोलन ने उसकी चूलें हिला दीं थीं। वर्तमान सरकार भी कोरोना की दूसरी लहर के बाद देश-विदेश में आलोचना झेल रही है। सन 2013 में गुजरात हाईकोर्ट ने इस संशोधन को गलत बताया, जिसके खिलाफ अपील करने के लिए वर्तमान सरकार अभी सुप्रीमकोर्ट में पहुंची है। कृषि, स्वास्थ्य और अब सहकारिता पर केंद्र लगातार राज्यों की शक्तियों का अतिक्रमण कर रहा है। बहरहाल अगर कानूनी पहलू छोड़ भी दें तो क्या केंद्र का तथाकथित क्रांतिकारी कदम और वह भी दूसरे सबसे व्यस्त और ताकतवर मंत्री को सौंपना कहीं असली उद्देश्य के प्रति शक तो नहीं पैदा करता? यह सच है कि मंदिर के बाद जन-भागीदारी का भाजपा के पास कोई धारदार मुद्दा नहीं रहा। 

कहीं ऐसा तो नहीं कि सहकारी समितियों को खड़ा कर, उन्हें आर्थिक मदद देकर सत्ता दल अपने लोगों की पैठ बना कर कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ऐसा नया टूल तैयार कर रही है, जो देखने में गैर-राजनीतिक हो लेकिन जो मूलत: राजनीतिक आधार तैयार कर सके। चूंकि सहकारिता बहु-आयामी है, लिहाजा किसान से लेकर समाज का हर वर्ग इससे जोड़ा जा सकेगा और केंद्र ऐसा कानून तैयार करना चाहेगा जिसके तहत वह पैसा सीधे समितियों को पहुंचाए, ताकि राज्य सरकारों की भूमिका गौण हो जाए। 

इसका लाभ यह होगा कि मोदी सरकार लाभाॢथयों को अपने पाले में आसानी से कर लेगी। इसकी सफलता की शर्त एक ही है- समितियों के सदस्य यानी आम लोग पैसे के प्रलोभन में किसी खास पार्टी से जुड़े लोगों को ही समिति के बोर्ड में चुनें। यह प्रयोग भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में किया जो काफी सफल रहा। हालांकि इस राज्य के ही एक जिले के सहकारी बैंकों ने नोटबंदी काल में सबसे ज्यादा नोट बदले।-एन.के. सिंह


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