इंसानों की करतूतों से मौसम में बदलाव आया

punjabkesari.in Thursday, Jul 15, 2021 - 07:04 AM (IST)

प्रकृति पर कब किसका जोर रहा है? न प्रकृति के बिगड़े मिजाज को कोई काबू कर सका और न ही फिलहाल मनुष्य के वश में दिखता है। हां, इतना जरूर है कि अपनी हरकतों से प्रकृति को हमारे द्वारा लगातार नाराज जरूर किया जा रहा है जिस पर प्रकृति का विरोध भी लगातार दिख रहा है। लेकिन बावजूद इसके हम हैं कि मानते नहीं। न पर्यावरण विरोधी गतिविधियों को कम करते हैं और न ही प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को ही रोक पाते हैं। प्रकृति और मनुष्य के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। 

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार तापमान में वृद्धि के कारण विश्व स्तर पर पानी की कमी और सूखे का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है। ये दोनों ही मानवता को बड़े स्तर पर नुक्सान पहुंचाने के लिए तैयारी से मुंह बाए खड़े हैं। आंकड़े बताते हैं कि 1998 से 2017 के बीच बिगड़ैल मानसून से 124 अरब डॉलर का आॢथक नुक्सान हो चुका है और करीब डेढ़ अरब लोग भी प्रभावित हुए हैं। एक अन्य ताजे भारतीय शोध से भी पता चलता है कि हिमालय और कराकोरम में ग्लोबल वार्मिंग का असर साफ दिखने लगा है। ग्लेशियर पिघलने से बाढ़ और रोजगार दोनों पर ही खतरा सामने है। पहले जून में पिघलने वाले ग्लेशियर अब अप्रैल में ही पिघलने लगे हैं। गर्मी से टूट रहे ग्लेशियरों से लगभग 100 करोड़ लोगों के सामने खतरे जैसे हालात दिखने लगे हैं। 

संयुक्त राष्ट्र संघ का ही पूर्वानुमान है कि ज्यादातर अफ्रीका फिर मध्य और दक्षिण अमरीका, मध्य एशिया, दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी यूरोप, मैक्सिको और शेष अमरीका में लगातार और गंभीर सूखा पड़ेगा। अभी जो हालात बन रहे हैं वह कुछ यही इशारा कर रहे हैं। भारतीय संदर्भ में देखें तो इसी बीते जून के अंत से जुलाई के दूसरे पखवाड़े में अब तक उमस और नम हवाओं के बीच लू के थपेड़े और भी ज्यादा खतरनाक हो रहे हैं। दरअसल यह वैट बल्ब तापमान वाली जैसी स्थिति होती है जो उमस और गर्मीं दोनों से मिलकर बनती है। इसमें तापमान तो 30 डिग्री के आसपास होता है लेकिन वातावरण में नमी 90 प्रतिशत होने के बावजूद ऐसे मौसम को सह पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। 

जहां भारत में समय से पहले आए मानसून की आमद और अब जरूरत के वक्त गफलत ने किसानों सहित आम व खास सबको परेशान कर रखा है। वहीं अमरीका में भी पारे ने नया रिकॉर्ड बना दिया। कैलिफोॢनया के डैथवैली पार्क में इसी 9 जुलाई को अधिकतम तापमान 54 डिग्री सैल्सियस दर्ज हुआ। इससे पहले 10 जुलाई 1913 को वहां तापमान 56.7 डिग्री सैल्सियस दर्ज हुआ जो दुनिया में सर्वाधिक है। कैलिफोर्निया, ओरेगन और एरिजोना में तमाम जंगल धधक उठे हैं, धुआं भरे पायरोक युलस बादलों का निर्माण कुछ इस तरह हुआ जो अमूमन जंगलों की बड़ी आग या ज्वालामुखी से बनते हैं। अभी जुलाई के 14 दिनों में ही 2,45,472 एकड़ इलाका जलकर खाक हो चुका है। 

तापमान भी 54 पार कर 57 डिग्री सैल्सियस पहुंचने पर उतारू है। बिजली गिरने की कई घटनाएं हुईं और आग फैलती चली गई। भारत में राजस्थान का चूरू भी देश का सबसे ज्यादा तापमान वाला शहर बन चुका है। 

दरअसल यह इंसानों की करतूतों से मौसम का बदलाव है। इस पर 70 विशेषज्ञों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम द्वारा किया गया अध्ययन है जिसमें स्वास्थ्य पर पडऩे वाले प्रभाव की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। ऐसे प्रभावों को जानने वाला यह पहला और अब तक का सबसे बड़ा शोध है। यह शोध नेचर क्लाइमेट पत्रिका में प्रकाशित हुआ है जिसके अनुसार गर्मी की वजह से होने वाली सभी मौतों का औसतन 37 प्रतिशत कहीं न कहीं सीधे तौर पर इंसानी करतूतों से है जिसके लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है। 

इस शोध अध्ययन के लिए 43 देशों में 732 स्थानों से आंकड़े जुटाए गए जो पहली बार गर्मी की वजह से मृत्यु के बढ़ते खतरे में इंसानी करतूतों से जलवायु परिवर्तन के वास्तविक योगदान को दिखाता है। साफ है कि जलवायु परिवर्तन से इंसानों पर दिख रहे खतरे अब ज्यादा दूर नहीं हैं। जल्द ही मानवीय करतूतों से बढ़ी गर्मी जिसे दूसरे शब्दों में हमारी करतूतों से हुआ जलवायु परिवर्तन भी कह सकते हैं से होने वाली मौतों को जांचने पर यह आंकड़ा हर साल एक लाख के पार पहुंच सकता है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव की विशेष प्रतिनिधि (आपदा जोखिम न्यूनीकरण) मामी मिजूतोरी भी इस बात को मानती हैं कि बिगड़ते पर्यावरण से पनपा सूखा अगली ऐसी महामारी बनने जा रहा है जिसके लिए न कोई टीका होगा न दवाई।-ऋतुपर्ण दवे
 


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