गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा के सामने चुनौतियां

punjabkesari.in Monday, Dec 20, 2021 - 05:01 AM (IST)

गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा में पूर्णता न होने के कारण भारत में छात्रों के लिए आगे पढऩे की राह असमंजसपूर्ण होती जा रही है। उत्तर भारत में छात्रों का बड़ी संख्या में विदेशों के लिए शैक्षणिक पलायन हो रहा है। आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार तभी संभव है जब हम उसकी असल चुनौतियों की पहचान कर सकें, जिसके लिए हमें कुछ दशक पीछे जाना होगा। 

सबसे पहले 80 के दशक तक शिक्षा नीति में अनुदान की प्राथमिकता थी। हालांकि तब से ही बिना अनुदान की नीति को बढ़ावा दिया जाने लगा था। लेकिन 2010 का दशक आते-आते स्थिति यह हो गई कि हमने उच्च शिक्षा में बिना अनुदान की नीति को स्वीकार कर लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि सार्वजनिक क्षेत्र की उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का स्तर खराब होता गया और शिक्षा का बाजारीकरण साफ तौर पर सामने आया। परिणामस्वरूप सामान्य परिवारों के लिए शिक्षा साल-दर-साल महंगी होती चली गई। 

उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति को समझने के लिए फिर से पीछे जाएं तो वर्ष 2004 में ‘निजी विश्वविद्यालय विधेयक व अध्यादेश’ आने के बाद बड़ी तादाद में निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना को बढ़ावा मिला था। दूसरी तरफ, उच्च शिक्षा के निवेश में साल-दर-साल कटौती किए जाने से गरीब परिवारों के बच्चों के लिए परिस्थिति पहले से विकट हुई है। इसकी पुष्टि केंद्र द्वारा शिक्षा के लिए दिए जाने वाले बजट का आंकलन करने से होती है। पिछले 5 वर्षों के दौरान शिक्षा पर किए जाने वाले निवेश को बढ़ाने की बजाय इसमें लगातार कटौती हुई है। इसलिए, उच्च शिक्षा में दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बुनियादी सुविधाओं का अभाव और गुणवत्ता में आई कमी है। 

आज देश में ऐसे कॉलेज कम नहीं हैं, जो कहने को तो कॉलेज हैं, मगर  छात्रों के लिए बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। इसके अलावा, विश्वविद्यालय में संबद्ध विद्यालयों का बढ़ता बोझ, पाठ्यक्रमों में बदलाव की मांग और ड्रापऑऊट विद्याॢथयों की बढ़ती संख्या असली चुनौतियां हैं, जिनका संबंध भी कहीं-न-कहीं सार्वजनिक शिक्षा के ढहते ढांचे और निजीकरण से ही है। वहीं, उच्च शिक्षा में अध्यापकों के रिक्त पद से जुड़े आंकड़े खुद अपनी हकीकत बताते हैं। इसका बुरा असर उच्च शिक्षा की अकादमिक गुणवत्ता पर पड़ा है। 

यदि हम विश्वविद्यालयों द्वारा तैयार किए गए पाठ्यक्रम की बात करें तो इसमें और सामाजिक व्यवहार के बीच भी कोई तालमेल नहीं दिखता। दरअसल, उच्च शिक्षा की अध्ययन सामग्री उपयोगी और मानवीय आवश्यकताओं पर आधारित कौशल विकास को बढ़ावा देने वाली होनी चाहिए। इसी प्रकार, उच्च शिक्षा से ड्रापआऊट होने वाले विद्यार्थियों को रोकना और सकल नामांकन अनुपात बढ़ाना भी इस क्षेत्र की एक बड़ी चुनौती है। 

भारत की उच्च शिक्षा में 18 से 23 वर्ष की आयु-वर्ग के अंतर्गत सकल नामांकन अनुपात महज 26.3 प्रतिशत है, जो अन्य विकसित और कई विकासशील देशों की तुलना में बहुत कम है। इससे स्पष्ट होता है कि आज भी देश के करीब 74 प्रतिशत युवा उच्च शिक्षा से बाहर हो जाते हैं। इससे जाहिर होता है कि सभी वर्गों के विद्यार्थियों को समान अवसर देना और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना आज भी दूर का सपना है। 

भारत जब स्वतंत्र हुआ था, तब 20 विश्वविद्यालय और 500 कॉलेज थे। वर्तमान में 1,000 से अधिक विश्वविद्यालय और 40,000 से अधिक कॉलेज हैं। संख्या की दृष्टि से उच्च शिक्षा में विकास होता दिखता है, लेकिन गुणवत्ता के मानकों पर यह दुनिया के अनेक देशों के मुकाबले पीछे है। असल में राजनीतिक फायदा लेने की आड़ में बेतुके कॉलेज खुलने से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई है। 

भारत की नई शिक्षा नीति बेहतर होने के साथ उच्च शिक्षा संस्थानों के पुनर्गठन और एकत्रीकरण की सिफारिश करती है। इसके मुताबिक यदि किसी शिक्षा संस्थान में विद्यार्थियों की संख्या कम है तो उसका किसी अन्य शिक्षा संस्थान में विलय कर दिया जाएगा। ऐसा हुआ तो आशंका यह है कि देश के दूरदराज के क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के प्रसार और प्रोत्साहन का कार्य रुक जाएगा तथा इससे कई ग्रामीण, पहाड़ी और जनजातीय अंचल के शिक्षा संस्थान बंद हो जाएंगे। कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान इन क्षेत्रों के विद्यार्थियों की पढ़ाई पहले ही बुरी तरह प्रभावित हुई है। इस पर ध्यान देने की जरूरत है। 

ऑनलाइन शिक्षण का लाभ उन विद्यार्थियों को ही मिला है जो सर्वसम्पन्न और टैक्नोफ्रैंडली हैं और जिनके अभिभावक मोबाइल और इंटरनैट का खर्चा वहन करने की स्थिति में हैं। इससे उच्च शिक्षा से जुड़ी बुनियादी संरचना की कमजोरियां सतह पर आई हैं। सत्य है कि कोरोना-काल में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों का एक बड़ा वर्ग पढ़ाई से छूट गया है। इसके लिए हम क्या कदम उठा रहे हैं? 

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के साथ इस बात को भी भली-भांति समझने की आवश्यकता है कि उच्च शिक्षा को पूर्ण लाभ का धंधा नहीं बनाया जा सकता। इसका उद्देश्य व्यक्ति को एक अच्छा नागरिक बनाना होना चाहिए जो विकास के साथ ही सामाजिक न्याय के लिए अपना योगदान दे सके। इसलिए, शिक्षा के व्यवसायीकरण और निजीकरण को बढ़ावा देने वाली नीति पर आगे बढऩे की बजाय सार्वजनिक क्षेत्र को प्राथमिकता देने वाली योजनाओं की आवश्यकता है। शिक्षा से जुड़े विद्वानों और शिक्षा नीति विशेषज्ञों को इस पर मंथन करना चाहिए।-डा. वरिन्द्र भाटिया
 


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