युद्ध विराम समझौता ‘स्वागत योग्य कदम’

punjabkesari.in Sunday, Feb 28, 2021 - 04:06 AM (IST)

पीपल्स लिबरेशन आर्मी तथा भारतीय सेना के बीच पैंगोंग झील के उत्तरी तथा दक्षिणी तट पर तनाव की प्रक्रिया समापन की ओर है परंतु बाकी का गतिरोध बना हुआ है क्योंकि आगे की ओर कोई प्रक्रिया बढ़ाने में चीन अनिच्छुक है। समय आ गया है कि एक बुनियादी सवाल पूछा जाए कि आखिर पाकिस्तान ने चीन-भारत गतिरोध का फायदा क्यों नहीं उठाया? पाकिस्तानी मिलिटरी तथा पी.एल.ए. के बीच सभी संबंध उतने ही ऐतिहासिक हैं जितने कि पाकिस्तानी रक्षा प्रतिष्ठान और अमरीकी पेंटागन के बीच के संबंध हैं। 

पाकिस्तान ने इन दोनों रिश्तों पर बहुत सफलतापूर्वक काम किया है। जहां एक ओर यह 1954 और 1955 में क्रमश: अमरीका समॢथत सीटो (दक्षिण-पूर्वी एशिया संधि संगठन) और सैंटो (सैंट्रल ट्रीटी आर्गेनाइजेशन) का सदस्य बन गया वहीं दूसरी ओर इसमें चीन के साथ चीन-पाक सीमा समझौते के तहत 1963 में सक्शगाम घाटी के संदर्भ में रिश्तों को और मजबूती प्रदान की। 

ऐसा न हो कि भूल जाएं कि यह पाकिस्तान ही है विशेषरूप से जनरल याहिया खान जिसने जुलाई 1971 में हैनरी किसिंजर को चीनी यात्रा में सुविधा प्रदान की। दिलचस्प बात यह है कि अमरीकी यू-2 जासूसी विमान जिन्होंने सोवियत यूनियन के ऊपर उड़ान भरी, उन्हें नार्थ-वैस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के बादाबेर पर अपना बेस दिया। यह ऐसा समय था जब सोवियत यूनियन तथा चीन 1960 के चीन-सोवियत विभाजन तक दोनों देश सहयोगी थे जिनके वास्तव में ये रिश्ते उस दशक के मध्य में खराब हो गए थे। 

पाकिस्तान पिछले 4 दशकों से भारत के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ चुका है। अगस्त 2019 में जब एन.डी.ए./भाजपा सरकार ने जम्मू और कश्मीर के प्रशासनिक ढांचे को बदलने का फैसला किया तो यह बैलिस्टिक हो गया। अप्रैल 2020 में भारत-चीन के रुख की शुरूआत के बाद से पाकिस्तान अजीब तरीके से शांत है। विभिन्न सिद्धांतों को प्रतिपादित करने के बावजूद इस व्यवहार के लिए कोई विश्वसनीय व्याख्या नहीं है। एक परिकल्पना यह भी है कि मुख्य रूप से पश्चिमी दबाव के कारण पाकिस्तान ने इसे हाथ में रखा है। 

ऐसा लगता नहीं है कि पाकिस्तान के अनिच्छुक होने के बावजूद पश्चिम का प्रभाव पाकिस्तान पर पड़ा है। 2001 के बाद से अफगानिस्तान में तालिबान शासन के खिलाफ पश्चिम की कार्रवाई से एक बार फिर से पाकिस्तान को बिल्ली का पंजा बनने को मजबूर कर दिया है। हालांकि 9 साल बाद ओसामा बिन लादेन का बेअसर होना पाकिस्तान की अफगान रणनीति की लचकदार अनिवार्यता को रेखांकित करने का काम करता है। यह तथ्य भी है कि अमरीकी प्रशासन और तालिबान के बीच दोहा वार्ता को सुविधाजनक बनाने में पाकिस्तान का महत्वपूर्ण योगदान था। एक अन्य सिद्धांत जो इसके बारे में बताता है कि 2016 की सॢजकल स्ट्राइक और 2019 के बालाकोट-जाब्बा टॉप एयर स्ट्राइक ने अपना प्रभाव छोड़ा है। हालांकि तथ्य है कि पाकिस्तान ने एयर स्ट्राइक और सर्जिकल स्ट्राइक को बामुश्किल स्वीकार किया है। गैर पक्षपाती विश्लेषकों ने भी इसे घरेलू उपभोग के लिए प्रकाश  से परे किसी गम्भीर मूल्य को नहीं पाया। 

इसका एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि चीन ने पाकिस्तान को रोक रखा है। पाकिस्तान की भागीदारी ने स्थिति को और जटिल तथा अस्थिर बना दिया। इसने चीन की स्थिति को उसके बड़े भू-भाग को रणनीतिक डिजाइनों के अनुरूप करने की अनुमति नहीं दी होगी। भारतीय रणनीतिक समुदाय में ऐसा कोई भी नहीं है जो सवाल का जवाब दे सके कि आखिर चीन ने भारतीय क्षेत्र में बदलाव क्यों किया और वह भी कोविड-19 के दौरान। यह नोट करना शिक्षाप्रद होगा कि  भारत द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) में वर्तमान कुर्सी हासिल करने के एक माह पूर्व भारतीय क्षेत्र का उल्लंघन हुआ था। यह सभी चीजें बहुत पहले से ही व्यवस्थित हैं और हितधारकों को ज्ञात भी हैं। 

इसलिए घुसपैठ कभी भी जमी हुई चट्टानों को पकडऩे के बारे में नहीं थी। इसके इरादे कुछ और ही थे। डब्ल्यू.एच.ओ. से क्लीन चिट मिलने के 2 दिन बाद कि कोविड-19 वायरस को जानबूझ कर फैलाया नहीं गया, डील को कर दिया गया। यदि पाकिस्तान इस पैक में एक और जोकर होता तो गतिशीलता अस्थिर हो सकती थी और स्थिति चीन के नियंत्रण से भी आगे बढ़ सकती थी। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि पाकिस्तान ने अपने स्वयं के जोखिम के बारे में बहुत कुछ जान लिया है कि किसी का उत्तेजक एजैंट बनकर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। यह सब एक लागत पर होता है। 

1980 के अफगान जेहाद में पाकिस्तान अमरीका और पश्चिम की अग्रिम पंक्ति का सहयोगी बन गया और अभी भी उसका खमियाजा भुगत रहा है। यही कारण है कि 2001 से लेकर अब तक उसने अफगानिस्तान पर दांव लगाया है। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम समझौते की घोषणा 25 फरवरी 2021 को एक बैठक के बाद संबंधित डी.जी.एम.ओ. के बीच हुई बातचीत के बाद हुई। भारत के लिए यह स्वागतयोग्य कदम है। एक पस्त अर्थव्यवस्था के साथ शायद ही दो फ्रंट पर संलग्न होने का भारत के लिए समय है।-मनीष तिवारी


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