‘क्या भारत चीन पर भरोसा कर सकता है’

punjabkesari.in Friday, Feb 26, 2021 - 03:02 AM (IST)

साम्यवादी चीन एक रहस्य है। दशकों से पेइचिंग को लेकर मेरा आलोचनात्मक आकलन यह है कि इस देश तथा इसके नेताओं पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता, न शांति और न ही युद्ध के समयों में। इस देश का ट्रैक रिकार्ड संदिग्ध रहा है। अतीत में इसके यातनापूर्ण अनुभव के बावजूद भारत ने चीन के साथ एक मैत्रीपूर्ण रवैया अपनाए रखा है। यद्यपि तनाव के चरम के दौरान नई दिल्ली के पास कड़ा रवैया अपनाने तथा उसी के अनुरूप अपनी राजनीतिक तथा आर्थिक नीतियां बदलने के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था। इनमें नए व्यापारिक सौदों के लिए सरकारी निविदाओं में भाग लेने से चीन को रोकना शामिल है। 

इस स्थिति में चीन को नुक्सान पहुंचाने के लिए नई दिल्ली के विदेशी निवेश नियमों में बदलाव किया गया। हालिया समय के दौरान नई दिल्ली ने पेइचिंग के 2 अरब डालर मूल्य के 150 प्रस्तावों को रोका है। निश्चित रूप से इसने भारत में चीनी कम्पनियों की व्यावसायिक योजनाओं को नुक्सान पहुंचाया है। इसके पीछे विचार यही है कि किसी भी ऐसे निवेश प्रस्ताव की इजाजत न दी जाए जो राष्ट्रीय सुरक्षा के मानदंडों पर खरा नहीं उतरता। 

चीन के संबंध में नई दिल्ली के व्यवहार में बदलाव लगभग उस समय के करीब आया जब पेइचिंग ने 9 महीने तक चले गतिरोध तथा झगड़ों के बाद लद्दाख क्षेत्र में पैंगोंग त्सो क्षेत्र में अपनी सेनाएं पीछे हटाने की प्रक्रिया शुरू की। फिलहाल सेनाएं हटाने की यह प्रक्रिया पैंगोंग त्सो झील के उत्तरी तथा दक्षिणी किनारों तक ही सीमित है। अभी भी झगड़े के कई बिंदू ऐसे हैं जिनका समाधान किया जाना है। यह एक चरणबद्ध तथा सत्यापित तरीके से किया जाएगा।

चीन तथा भारत को संयुक्त रूप से इस बात पर सहमत होना होगा कि फिंगर 3 तथा फिंगर 8 के बीच का क्षेत्र ‘अस्थायी तौर पर एक नॉन-पैट्रोलिंग क्षेत्र’ बन जाए। जिस चीज ने झील के किनारों के आसपास के इन क्षेत्रों को इतना संवेदनशील तथा महत्वपूर्ण बनाया, वे थे गतिरोध की शुरूआत पर इस क्षेत्र में हुईं हिंसक झड़पें। भारत की वास्तविक नियंत्रण रेखा (एल.ए.सी.) की पारंपरिक अवधारणा के अनुसार चीनी सेनाएं लगभग 8 किलोमीटर भीतर तक आ गई थीं। 

चीनी घुसपैठ को बेअसर करने के लिए भारतीय सेनाओं ने अगस्त के अंत में कुछ ऊंची चोटियों पर कब्जा करके रणनीतिक लाभ हासिल कर लिया। भारतीय सेना ने माग्रहाल, मुखपारी, गुरुंग हिल तथा ताजांग ला की ऊंचाइयों पर अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया। ऐसा लगता है कि चीनी कमांडरों को यह नहीं सुहाया क्योंकि भारत स्पांगुर गैप के कूटनीतिक क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व बना सकता था। नई दिल्ली वहां हमला करने की स्थिति में थी जैसा कि चीन ने 1962 में किया था। इससे नई दिल्ली को चीन के मोल्डो गैरीसन पर सीधी नजर रखने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लाभ भी मिला। 

इस बात की प्रशंसा की जानी चाहिए कि भारत ने पूर्वी लद्दाख में दोनों देशों के बीच सेनाएं हटाने के समझौते के पहले चरण पर प्रतिक्रिया देने से पहले चीन द्वारा पैंगोंग त्सो के उत्तरी तथा दक्षिणी किनारों से सैनिक हटाने की प्रतीक्षा की। यह सही दृष्टिकोण था क्योंकि चीन को अपने वायदों से मुकरने के लिए जाना जाता है। अत: इस  बार नई दिल्ली ने सेनाएं धीरे-धीरे पीछे हटाने का निर्णय लिया और केवल अंतिम दिन प्रक्रिया पूरी की। 

संयोग से इस बार चीनियों ने तत्परता और ‘रोजाना के लक्ष्य से अधिक तेज गति’ दिखाई। एक अधिकारी के अनुसार पैट्रोलिंग को लेकर ‘अस्थायी अधिस्थगन’ की धारा को अंतिम समझौते के साथ जोड़ा गया है। इस बात पर स्पष्ट तौर पर जोर दिया गया है कि राजनीतिक तथा कूटनीतिक स्तर पर एक अंतिम निर्णय लिए जाने के बाद भारतीय सेनाएं फिंगर क्षेत्र में अपनी पारम्परिक गश्त दोबारा शुरू कर सकेंगी। इस समय इस संबंध में मैं केवल आशा ही कर सकता हूं। 

पूर्व विदेश सचिव तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व चेयरपर्सन श्याम सरन ने भी एल.ए.सी. से ‘चरणबद्ध ढंग से सेनाएं हटाने’ पर अपने विचार खुल कर व्यक्त नहीं किए। उन्होंने कहा कि फिंगर क्षेत्र में बफर जोन (नो मैन्स लैंड) बनाने का अर्थ ‘युद्ध पूर्व स्थिति’ पर नहीं लौटना हो सकता है अर्थात अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति। मैं सुनिश्चित नहीं हूं कि सीमा क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए तनाव के बाकी बिंदुओं का कितनी सुगमता से समाधान निकाला जाएगा।  मैं रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के संसद में दिए गए बयान की प्रशंसा करता हूं कि कोई भी भारत की भूमि का एक इंच भी नहीं ले सकता। हालांकि हमें हमेशा सतर्क रहना होगा क्योंकि चीन द्विअर्थ तथा धोखेबाजी के अपने पुराने खेल को खेलने में सक्षम है। उसे ऐसा ही रहने दें। नई दिल्ली को बाकी बचे मुद्दों के पारस्परिक स्वीकार्य समाधान के लिए आगे बढऩा होगा। 

भारत तथा चीन के कमांडर पहले ही इस कार्य में जुटे हैं। उन्होंने लद्दाख में हॉट स्प्रिंग्स, गोगरा पोस्ट तथा देपसांग के मैदानों के तनाव के बिंदुओं से सेनाएं पीछे हटाने पर चर्चा की है। चर्चा के लिए  व्यापक ङ्क्षबदू रेखांकित कर लिए गए हैं फिर भी सारी प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होने वाली। हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार महत्वपूर्ण हॉट स्प्रिंग्स तथा गोगरा में सेनाएं हटाने की प्रक्रिया बहुत कम हुई है। यह देपसांग के मैदानों में गश्त के अधिकारों के चिरलम्बित मुद्दे के अतिरिक्त है। यहां तक कि डेमचोक के लोगों को अपने पशु चराने के लिए भी गत 3 वर्षों से चीनियों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। ये सभी लम्बित मुद्दे काफी जटिल हैं। काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि इन पेचीदा मुद्दों से हमारे सैन्य तथा राजनीतिक नेता कितना चतुराईपूर्ण निपटते हैं। 

परेशान करने वाली बात है सेना हटाने के पहले चरण के दौरान रेचिन ला तथा रेजांग ला सहित कैलाश शृंखला की ऊंचाइयों को खाली करने का भारत का निर्णय। श्याम सरन ने सही पूछा है कि ‘हमने इन ऊंचाइयों को खाली कर दिया है और यदि बाद में हमें पता चलता है कि चीन द्वारा सेनाएं हटाने की हमारी आकांक्षाएं जमीनी स्तर पर फलीभूत नहीं हुईं तो, हां, हम यह कहेंगे कि यह हमारी ओर से यह एक चतुराईपूर्ण कदम नहीं था।’जो भी हो, हमें लद्दाख एल.ए.सी. में सेनाएं हटाने की प्रक्रिया की अंतिम ‘बैलेंस-शीट’ लिखे जाने का इंतजार करना होगा।-हरि जयसिंह
    


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