भाजपा और शिरोमणि अकाली दल लचीला रवैया अपनाकर गठबंधन को बचाएं

punjabkesari.in Wednesday, Jan 22, 2020 - 01:46 AM (IST)

1998 से 2004 तक प्रधानमंत्री रहे श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा के गठबंधन सहयोगी तेजी से बढ़े और उन्होंने राजग के मात्र तीन दलों के गठबंधन को विस्तार देते हुए 26 दलों तक पहुंचा दिया। श्री वाजपेयी ने अपने किसी भी गठबंधन सहयोगी को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया परंतु उनके राजनीति से हटने के बाद भाजपा के कई सहयोगी दल विभिन्न मुद्दों पर असहमति के चलते इसे छोड़ गए। अभी हाल ही में भाजपा का सर्वाधिक 35 वर्ष पुराना गठबंधन सहयोगी ‘शिवसेना’ मतभेदों के चलते भाजपा से अलग हो गया और अब 1998 से भाजपा के साथ चले आ रहे दूसरे सर्वाधिक पुराने गठबंधन सहयोगी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के साथ भी इसके संबंधों में दरार आ रही है। 

एन.आर.सी. और सी.ए.ए. पर देश में मचे घमासान के बीच दोनों दलों में दूरी बढऩे का पहला संकेत गत मास उस समय मिला जब  शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल ने एन.आर.सी. से पूर्ण असहमति व्यक्त करते हुए गृहमंत्री अमित शाह से सी.ए.ए. में मुसलमानों को शामिल करने की अपील की। फिर 24-25 दिसम्बर को शिअद के सांसद नरेश गुजराल ने एन.आर.सी. समाप्त करने की मांग दोहराई और कहा, ‘‘मुसलमानों को सी.ए.ए. में शामिल करना और एन.आर.सी. को समाप्त करना चाहिए।’’ दोनों दलों में मतभेदों की यह दरार दिल्ली विधानसभा के चुनावों की घोषणा के बाद और बढ़ गई जब भाजपा नेताओं के अनुसार शिअद द्वारा अधिक सीटें मांगने से सीटों के बंटवारे पर गतिरोध के चलते दोनों में तनाव पैदा हो गया जबकि कुछ लोगों के अनुसार इसका वास्तविक कारण शिअद अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल और डी.एस.जी.एम.सी. प्रधान मनजिंद्र सिंह सिरसा द्वारा सी.ए.ए. के विरोध में दिया गया बयान है। 

दिल्ली शिअद के प्रदेश अध्यक्ष हरमीत सिंह कालका तथा मनजिंद्र सिंह सिरसा के अनुसार ,‘‘भाजपा द्वारा शिअद पर बार-बार सी.ए.ए. के समर्थन के लिए दबाव डाला जा रहा था, जबकि शिअद इसके विरुद्ध है। मुसलमानों को धर्म के नाम पर बाहर निकालना ठीक नहीं है। दिल्ली में शिअद का कोई भी उम्मीदवार विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेगा।’’ एक अन्य वरिष्ठ शिअद नेता प्रेम सिंह चंदूमाजरा के अनुसार, ‘‘भाजपा ने सी.ए.ए. पर स्टैंड बदलने को कहा था लेकिन शिअद ने ऐसा नहीं किया और इसके बाद शिअद ने दिल्ली चुनाव से दूर रहने का फैसला किया है।’’ उल्लेखनीय है कि इससे पहले शिअद ने भाजपा नेतृत्व से स्पष्ट कह दिया था कि दिल्ली चुनाव वे अपने चुनाव चिन्ह ‘तकड़ी’ पर ही लड़ेंगे और यदि भाजपा के नेता सी.ए.ए. तथा ‘कमल’ के चिन्ह पर चुनाव लडऩे के स्टैंड पर अडिग हैं तो शिअद भी अपने स्टैंड पर अडिग है। इस सारे घटनाक्रम से जहां दिल्ली में भाजपा और शिअद गठबंधन को लेकर भ्रामक स्थिति पैदा हो गई है वहीं भाजपा ने एक सीट जजपा को और 2 सीटें जद-यू को चुनाव लडऩे के लिए अलाट कर दी हैं। 

दोनों दलों में व्याप्त मतभेदों के बीच राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि यदि शिअद को सी.ए.ए. और एन.आर.सी. का विरोध करना ही था तो संसद में क्यों नहीं किया और अब शिअद द्वारा किया जा रहा यह विरोध अपनी स्थिति को कमजोर देखते हुए दबाव की राजनीति का हिस्सा है। भले ही इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी भी पक्ष ने गठबंधन तोड़ा नहीं है परन्तु लोगों में इस सारे घटनाक्रम से नकारात्मक संदेश ही गए हैं। दोनों दलों के साथ आने से आतंकवाद ग्रस्त पंजाब में भाईचारा मजबूत हुआ परंतु यह भी तय है कि दिल्ली में गठबंधन टूटने की स्थिति में इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप पंजाब में भी, जहां ये 1998 से मिलकर चुनाव लड़ते आ रहे हैं, गठबंधन प्रभावित होगा और विभाजनकारी शक्तियों को सिर उठाने का मौका मिलेगा। लिहाजा दिल्ली ही नहीं बल्कि पंजाब में भी दोनों दलों का गठबंधन बना रहने में ही देश और दोनों दलों की भलाई है क्योंकि अलग-अलग चुनाव लड़कर भाजपा और शिअद न पंजाब में सत्ता में आ पाएंगे और न दिल्ली में। समय की मांग है कि इस मामले में दोनों ही दलों के नेता लचीला रवैया अपना कर इस गठबंधन को बचाएं।—विजय कुमार  


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