अनुशासनहीन होने का अर्थ अराजकता नहीं!

punjabkesari.in Saturday, Jun 18, 2022 - 04:07 AM (IST)

आपातकाल की साक्षी पीढ़ी को याद होगा कि तब संत विनोबा भावे की निष्ठा, ईमानदारी, देशभक्ति और दबे कुचले वर्ग के प्रति उनकी भावनाओं का लाभ उठाने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनका इस्तेमाल एक ऐसे विज्ञापन के जरिए किया जिसमें एमरजैंसी लगाने को अनुशासन पर्व कहा गया।यह सभी जानते हैं कि तब लोकतंत्र की गर्दन मरोडऩे, विरोधी स्वर का गला घोटने और अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए ही आपातकाल लगाया गया था ताकि एक निरंकुश शासक की तरह केवल एक व्यक्ति और उसकी आने वाली पीढ़ी ही भारत की सत्ता हमेशा अपने हाथ में रख सके। 

इतिहास दोहराता है : यह उस समय की संक्षिप्त व्याख्या हो सकती है लेकिन वर्तमान में इसकी क्या प्रासंगिकता है, यह समझने के लिए कुछ बातों पर गौर करना होगा।सबसे पहले तो यह कि आज जो युवा पीढ़ी है, उसका जन्म इस सदी के आरंभ के साथ हुआ और उसने अपने सामने उन घटनाओं को घटते हुए नहीं देखा जिन्हें उनके माता-पिता, अभिभावकों और शिक्षकों से लेकर उस समय के नेताओं ने देखा था। 

यह दौर भ्रष्टाचार, अनियमित कारनामों, रिश्वतखोरी, सीमित और थोपी गई ईमानदारी का था। ऐसे समय में वर्तमान युवा वर्ग की परवरिश हुई और उसने जो देखा, उनका आज का आचरण उसी के अनुरूप है। उनका आक्रोश, क्रोध और अपने साथ हो रहे तथाकथित भेदभाव का परिणाम उनके हिंसक प्रदर्शन, तोड़-फोड़ की प्रवृत्ति के रूप में निकल रहा है। किसी भी बात की वास्तविकता जाने और उसका विश्लेषण किए बिना केवल विद्रोह करना, अनुशासन का पालन न करना और अपनी बात मनवाने के लिए जिद्दीपन अख्तियार कर लेना यही दर्शाता है। इस जिद का ही परिणाम सार्वजनिक संपत्ति नष्ट करने, परिवहन और संचार साधनों को नष्ट करने के रूप में निकल रहा है। 

धर्म को लेकर कोई बेमतलब का विवाद हो, एक राजनीतिक व्यक्ति का समर्थन करने के लिए सड़कों पर हंगामा खड़ा करना हो या फिर अग्रिवीर जैसी सेना में भर्ती होने की प्रक्रिया का विरोध करना हो, इसकी जड़ में केवल अनुशासनहीनता है। यही कुछ एमरजैंसी के समय हुआ था और लगता है कि इतिहास नए रूप में अपने को दोहरा रहा है। एक राजनीतिक व्यक्ति की धार्मिक टिप्पणी पर अराजक तत्वों के हाथों में खेलना युवा वर्ग के लिए क्या उचित है? इसी तरह कानूनी कार्रवाई रोकने के लिए संघर्ष, आंदोलन और ङ्क्षहसा का सहारा लेना क्या बहकावे में आना नहीं है? 

सैनिक का जीवन आदर्श होता है : जहां तक अग्रिवीर का संबंध है तो इसमें सबसे बड़ी सोचने की बात यह है कि सेना में भर्ती का रास्ता क्या अनुशासनहीन होने से गुजरता है? जो ङ्क्षहसक प्रदर्शन कर रहे हैं, आगजनी, तोड़-फोड़ कर रहे हैं और कुतर्क के आधार पर अपनी बात मनवाना चाहते है, क्या वे सेना में भर्ती होने के योग्य हैं? स्वयं मैंने देखा है कि सेना से रिटायर हुए कर्मठ व्यक्ति सरकारी सेवाओं में कीर्तिमान स्थापित करते रहे हैं, निजी क्षेत्र उनकी ईमानदारी और गलत काम न करने की स्वाभाविक प्रकृति के कारण अपने दरवाजे खोले रखते हैं। 

4-5 साल की अवधि का सैन्य प्रशिक्षण और नौकरी 23 साल के युवक को इतना कुशल प्रशासक बना सकती है कि वह किसी भी लोभ, लालच में पड़े बिना कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में अपना कत्र्तव्य पालन कर सकता है। यदि सेना के अनुशासन से निकला कोई उद्यमी उद्योग या कारखाना लगाता है तो वह अपने उत्पादन की क्वालिटी से समझौता नहीं करेगा, लागत पर नियंत्रण रख सकेगा और बिक्री में दलाली को जगह नहीं देगा। यही बात सेना, अर्ध सैनिक बल और दूसरे राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में एक सैनिक की नियुक्ति के बारे में कही जा सकती है। 

सरकार को जो सोचना है : यहां सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सेना की सेवा से निकले सभी युवकों के भविष्य की योजनाओं की रूप-रेखा बनाने में मदद करेगी, उन्हें सरकारी लालफीताशाही का शिकार नहीं बनने देगी और उनके साथ किसी भी तरह का दुव्र्यवहार, भेदभाव न तो करेगी और न होने देगी। क्या ऐसी कोई योजना बन सकती है या व्यवस्था लागू की जा सकती है कि सेना में नौकरी के बाद प्राप्त सर्टिफिकेट ही सभी तरह की खानापूर्ति का विकल्प हो? उसके लिए कोई दूसरी चीज जैसे कोलेट्रल सिक्योरिटी, गारंटी, जमीन-जायदाद या किसी व्यक्ति की सिफारिश की जरूरत न हो। 

इसी तरह सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं में नौकरी हासिल करने के लिए योग्यता और अनुभव के आधार पर प्राथमिकता देते हुए तुरंत नियुक्ति मिले। यदि यह व्यवस्था इस योजना को लागू करने से पहले न की गई तो इसका भी हश्र वही होगा जो कृषि कानूनों का हुआ, उन्हें रद्दी में फैंकना पड़ा जबकि यदि समय रहते और लागू करने से पहले कुछ एेसे प्रावधान कर लिए जाते, ठोस कदम उठाए जाते जिनसे किसानों को भरोसा हो जाता कि उनके साथ छल नहीं बल्कि उनकी गरीबी और बेरोजगारी का समाधान ये कृषि कानून हैं।-पूरन चंद सरीन 
 


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