ड्रैगन पर काबू के लिए ‘बीन और बंदूक’ जरूरी

punjabkesari.in Sunday, Jun 21, 2020 - 03:50 AM (IST)

ड्रैगन यानी सर्प दैत्य-चीन की पहचान यही है। मुझे 1993 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के साथ चीन जाने का पहला अवसर मिला था और तब संबंधों का नया अध्याय शुरू हुआ था। उसके बाद राव ने ही 1996 में द्विपक्षीय संबंधों के मोटे धागे बांधे। संयोग रहा कि 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की यात्रा और समझौते का भी गवाह रहा। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हीं समझौतों पर भारतीय हितों की रक्षा करते हुए आगे बढ़ रहे थे। लेकिन चीन के सैनिकों ने भारत की जमीन पर खून बहाने की कोशिश की। यह 1960-62 वाला भारत नहीं है, जिस पर रात को हमला करके कोई इलाका आसानी से निगला जा सके। भारतीय सेना की तुलना में उसके सैनिक अधिक हताहत हुए हैं। एक बार फिर शीर्षस्थ स्तर पर बातचीत से टकराव को बढऩे से रोकने की उम्मीद की जा रही है, लेकिन इस बार भारत के तेवर नरम नहीं हैं।

इस अवसर पर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को झूला-झुलाने या उनके साथ वार्ताओं, समझौतों, आर्थिक सौदों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर राजनीतिक दलों के हमले बेमानी और शर्मनाक हैं। कोरोना काल या सीमा पर गंभीर टकराव के समय दुनिया के किसी भी देश में जिम्मेदार नेता या संगठन इस तरह के घटिया हथकंडे नहीं अपना सकते। 

विश्व की राजनीति टी-20 के क्रिकेट मैच की तरह नहीं होती। नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, देवेगौड़ा, अटल जी और मनमोहन सिंह क्या चीन और अमेरिका को संयुक्त बैठकों में  गालियां सुनाते थे? पूर्व प्रधानमंत्री हों या वर्तमान के नरेंद्र मोदी जहरीले अजगर को नियंत्रित करने के लिए बीन बजाकर थोड़ा वश में करके उसके जहर से भी कुछ इलाज की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन दूसरे हाथ में बंदूक, मिसाइल और परमाणु अस्त्रों के दस्तावेज भी सामने दिखाते रहे हैं। हमारे गांव के दादाजी सांप निकलने पर मुझे समझाते थे कि वह कभी सीधा नहीं चलता, बल्कि संभव है आगे जाता दिखे, लेकिन एक झटके में पीछे से हमला कर काट सकता है। 

पिछले दशकों में चीन और भारत के अनेक राजनयिकों से चर्चाओं से भी मुझे यह एहसास है कि चीन यदि हमारी पश्चिमी सीमा लद्दाख पर सैन्य गतिविधि करता है, तो उसका असली निशाना अरुणाचल में डंसने का रहता है। माओ के सत्ता काल से अब शी जिनपिंग तक जब भी सीमा विवाद पर वार्ता होती है, उसके नेता, सेनाधिकारी पूरब का हिस्सा देकर पश्चिम का हिस्सा लेने की चालाकी भरी बातें करने लगते हैं। चीन अब भी सुन्दरतम अरुणाचल के फूल को तिब्बत के सिर पर रखा देखने की लालसा पाले हुए है। जबकि अरुणाचल और तिब्बत का बड़ा भूभाग, नेपाल और भूटान के अधिकांश हिस्से और लोग सदियों से भारत भूमि के साथ माने जाते रहे हैं। राजवंशों के काल में सबको अपने इलाकों की सेवा रक्षा करनी होती थी। 

मुझे भारत चीन की सरकारी वार्ताओं से अधिक दोनों देशों की निजी कंपनियों के बीच होते रहे अरबों डॉलर के समझौतों पर ध्यान दिलाना आवश्यक लगता है। खासकर भारतीय कंपनियों द्वारा चीन में किए गए पूंजी निवेश की महत्ता चीन के शीर्ष नेता भी समझते हैं। मैं स्वयं शंघाई से जुड़े हेयान काऊंटी औद्योगिक बस्ती में भारतीयों के कारखाने, ऑफिस देखकर आया हूं। भारत में लोगों को यह गलतफहमी रहती है कि चीन की तरक्की उसने अकेले कर ली है। असलियत यह है कि 1993 तक राजधानी बीजिंग भी लगभग साइकिल युग में थी और हमें सड़कों पर इक्का-दुक्का कारें दिखती थीं। इस चक्कर में हम जैसे पत्रकारों को पैदल अधिक चलना पड़ता था। 

अमेरिका, यूरोप, भारत और खाड़ी के देशों के पूंजी निवेश से उसे आधुनिक होने और आर्थिक शक्ति बनने का लाभ मिला। हमारी आई.टी. कंपनी इंफोसिस, विप्रो, टी.सी.एस., टैक महिंद्रा, एच.सी. एल. जैसी कंपनियों ने पिछले 10-15 वर्षों में उसे संचार संसाधनों में अग्रणी सा बना दिया। यही नहीं इन कंपनियों में नब्बे प्रतिशत कर्मचारी चीन के स्थानीय लोग हैं। जब अटलजी के साथ समझौता हुआ, तब चीन में भी रोजगार की गंभीर समस्या थी। इसीलिए चीन ने भारत के साथ अमेरिका के दरवाजे पूरी तरह खोल दिए। सारी लड़ाई के बावजूद आज भी चीन और अमेरिका में दोनों देशों की कंपनियों के खरबों डॉलर लगे हुए हैं। 

इस समय भारतीय सीमा पर चीन की धोखाधड़ी से घुसपैठ की कोशिश के पीछे उसकी जमीन हथियाओ साजिश के साथ आर्थिक हालत बिगडऩा, कोरोना महामारी फैलाने के पाप से दुनिया से मिल रही नाराजगी, नफरत, विदेशी कंपनियों के पलायन की तैयारियां,फिर कम्युनिस्ट पार्टी में  अंदर बढ़ रहा असंतोष भी है।-आलोक मेहता


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