देश की खराब आर्थिक स्थिति को छुपाने का प्रयास

punjabkesari.in Friday, Aug 19, 2022 - 06:15 AM (IST)

सरकारी तंत्र द्वारा देश की बिगड़ चुकी आर्थिक स्थिति की वास्तविकता को झूठे प्रचार तथा गलत तथ्यों द्वारा छुपाने का प्रयास किया जा रहा है। खतरनाक बिंदू तक पहुंच चुकी बेरोजगारी तथा गरीबी को कोई गैर-जिम्मेदार सरकार ही नजरअंदाज कर सकती है। करोड़ों हाथों के बेकार होने के कारण तेजी से सामाजिक तनाव तथा अराजकता फैल रही है। मामूली तकरार या झगड़े के कारण किए जाते कत्लों, लूट-खसूट तथा डाकों की दिल दहला देने वाली वारदातें तथा असामाजिक गतिविधियों में दिनों-दिन हो रही वृद्धि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। निराश युवाओं द्वारा सब कुछ दांव पर लगाकर विदेश जाने की लालसा समस्त समाज के लिए चिंता का विषय है। 

जिन लोगों की विदेश जाने की हैसियत नहीं है, वे जाने-अनजाने शासक राजनीतिक दलों की समाज को नुक्सान पहुंचाने वाली कार्रवाइयों, नशा तस्करों तथा माफिया सरगनाओं के चक्रव्यूह में फंस रहे हैं तथा नशे की लत पूरी करने या अन्य जरूरतों के लिए कोई भी कुकर्म करने के लिए तुरन्त तैयार हो जाते हैं। पुलिस के पास ऐसे समाज विरोधी तत्वों के कारनामों तथा लूट-खसूटों की घटनाओं का शायद 10 प्रतिशत ब्यौरा भी नहीं पहुंचता। यदि स्थिति ऐसी ही रही तो लगता है कि सामान्य व्यक्ति का घर से बाहर निकलना भी मुश्किल हो जाएगा। ऐसी स्थिति का मुकाबला केवल कानून-व्यवस्था की उस मशीनरी के सहारे नहीं किया जा सकता जो स्वयं ही बड़ी दल-दल में फंसी हुई है। 

इस समस्या का ठोस हल बेरोजगार लोगों को काम देने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। इस समस्या को प्राथमिक रूप में हल करने के लिए कोई साधन जुटाने का कार्य सरकारों ने बड़ी हद तक तब से त्याग दिया है जब पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में आॢथक सुधारों के नाम पर नवउदारवादी आॢथक नीतियां लागू करने का श्रीगणेश हुआ था। यह घटनाक्रम पूरे संसार में हो रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था के संचालकों द्वारा पूर्व सोवियत यूनियन की समाजवादी  व्यवस्था के मुकाबले खड़ा किया गया ‘कल्याणकारी राज्य’ (वैल्फेयर स्टेट) का भ्रम अब कहीं नहीं मिलता और पूंजीवादी ढांचे की कुरूप तथा भयानक तस्वीर (नवउदारवाद की शक्ल में) पेश हो गई है। 

मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान विभिन्न नामों से कई तरह की योजनाएं शुरू की हैं। जोर-शोर से इनका प्रचार किया गया, 2 करोड़ लोगों को हर वर्ष रोजगार देने के दावे प्रति जुबानी योजनाओं के साथ रोजगार के अवसर तो क्या पैदा होने थे, उल्टे अमीर-गरीब के अंतराल में और वृद्धि हो गई। अब नए ‘मंत्र’ के तहत मोदी सरकार ने विरोधकारों को सरकार पर कोई आशा रखने की बजाय खुद ‘स्वरोजगार’ पैदा करने का ‘पैगाम’ दिया है। यह केवल धोखा है। भला साधन रहित लोग इस भयंकर मंदी के दौर में कौन-सा गुजारे योग्य धंधा शुरू कर सकते हैं? 

दूसरी ओर आए दिन रॉकेट की तेजी से बढ़ती महंगाई की मार के कारण बेरोजगारी और भी कई गुणा ज्यादा दुखदायी बनती जा रही है। वास्तव में केंद्र की मोदी सरकार आॢथक तथा सामाजिक क्षेत्र में उठाए गए विभिन्न कदमों, जैसे नोटबंदी, जी.एस.टी., स्टार्टअप, घर-घर शौचालय, खेती-फसलों की बीमा योजना आदि के साथ हुई प्राप्तियों या इन कदमों की सफलता या असफलता का हिसाब-किताब (रिपोर्ट कार्ड) कभी पेश नहीं करती। 

जनता को दुविधा में डालने के लिए टी.वी. तथा अन्य प्रचार साधनों के माध्यम से विकास माडलों-‘मोदी विकास माडल व केजरीवाल विकास माडल’ का शोर डाला जा रहा है। दरअसल दोनों विकास माडलों में रत्ती भर भी अंतर नहीं है। विकास की दोनों किस्में कार्पोरेट घरानों के मुनाफे में अथाह वृद्धि करने तथा मेहनतकश लोगों को कंगाल करने की ओर केंद्रित हैं। निजीकरण पर आधारित ये दोनों विकास माडल देश की पूंजी को चंद हाथों के सुपुर्द करके अमीर-गरीब का अंतर और बढ़ाते हैं। 

याद रहे कि किसी भी देश का राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास आर्थिक विकास के अनुरूप ही होता है। इसलिए दोनों ही विकास माडलों के पैरोकारों (मोदी व केजरीवाल) द्वारा धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र के उसूल त्याग कर धर्म के दुरुपयोग से राजपाट पर कब्जा कायम रखने या भविष्य में कब्जा करने की कुचाल छुपी है। इस नीति चौखटे से निकली राजनीतिक व्यवस्था अवश्य ही पूरी तरह से धक्केशाहीपूर्ण व लोगों के प्रति जवाबदेही से मुक्त होगी। तभी सामाजिक स्थिति असहनशीलता तथा नफरतपूर्ण प्रचार के माध्यम से हर पल गिरावट की ओर जा रही है। 

ध्यान दें तो लगता है कि कार्पोरेट घरानों का जर-खरीद मीडिया आम लोगों को दरपेश मुश्किलों बारे कोई समाचार दिखाने या कोई स्वास्थ्यपूर्ण बहस-मुबाहिसा करवाने की बजाय समाज में साम्प्रदायिक जहर घोलने का काम कर रहा है। विशेष राजनीतिक या धार्मिक अवसरों को यादगारी घटना बनाने के लिए लोगों के कल्याण हेतु खर्च किए जाने वाले धन को महीनों भर धुआंधार प्रचार के माध्यम से बर्बाद किया जाता है। दोनों विकास माडलों (जो मूल रूप में एक ही हैं) के मुकाबले में कोई जनहितैषी विकास माडल पेश करने वाले वामपंथी, प्रगतिशील या संवेदनशील पक्ष को बहस में भागीदार ही नहीं बनाया जाता। झूठे प्रचार के सहारे यह लोगों की मानसिकता को प्रदूषित करने की कोई घटिया चाल है। मगर तथ्य बहुत बेशर्म होते हैं। ये 100 पर्दे फाड़ कर भी प्रकट हो जाते हैं।

जब देश के बहुसंख्यक की जेब खाली हो और उनकी कमाई चंद हाथों में इकट्ठी हो रही हो तो उस समय आर्थिक मंदी की आमद को शोर-शराबे में नजरअंदाज करना बहुत खतरनाक है। इस सच्चाई को स्वीकार करके तुरन्त आवश्यक उपाय करने की जरूरत है। मगर न केंद्रीय सरकार और न ही राज्य सरकारें इस ओर कोई ध्यान दे रही हैं।-मंगत राम पासला


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