पाकिस्तान में सेना का दबदबा हर सरकार पर रहेगा

punjabkesari.in Saturday, Nov 26, 2022 - 05:51 AM (IST)

जब कभी भी पाकिस्तान के अंदर राजनीतिक संकट वाले घोर काले बादल मंडराने लगे तो उसकी गर्ज पड़ोसी देशों विशेषकर भारत तक भी पहुंची और अमरीका भी उससे सचेत हो गया। वहां की सेना राजनीतिक अस्थिरता वाले माहौल में अपनी भूमिका निभाना अपना कत्र्तव्य समझती रही है। 29 नवम्बर को सेना को अलविदा कहने जा रहे पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने 22 नवम्बर को एक सार्वजनिक बैठक में कहा कि सेना राजनीति में दखलअंदाजी करना बंद करेगी। 

मुझे शक है कि यह फैसला तो पाकिस्तान सेना के नवनियुक्त प्रमुख जनरल आसिम मुनीर तथा ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के नामित चेयरमैन जनरल साहिर शमशाद मिर्जा ने संयुक्त तौर पर करना है जोकि समय की नजाकत पर निर्भर करेगा। मेरी यह निजी सोच है कि सरकार बेशक शरीफ परिवार की रहे, इमरान की बने या किसी अन्य राजनीतिक दल की मगर पाकिस्तान में सेना का दबदबा कायम रहेगा। 

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री तथा तहरीक-ए-इंसाफ (पी.टी.आई.) के चेयरमैन इमरान खान ने 28 अक्तूबर को हजारों की तादाद में अपने समर्थकों सहित लाहौर से इस्लामाबाद तक हकीकी आजादी के नारे के अंतर्गत लम्बी यात्रा शुरू की थी मगर गुजरांवाला के निकट 3 नवम्बर को एक हमले के दौरान इमरान की टांग पर गोली लगी। पी.टी.आई. के महासचिव असद उमर  ने इमरान पर हमला करने के लिए पाक प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ तथा गृहमंत्री राणा सलाउल्ला और मेजर जनरल फैसल नसीर को जिम्मेदार ठहराया जोकि आई.एस.आई. की मिलीभगत का नतीजा भी कहा जा रहा है। 

सेना की भूमिका
पाकिस्तानी सेना के पूर्व जनरल मोहम्मद अयूब खान ने 17 जनवरी 1951 को सेना की बागडोर संभाली और वह करीब 8 साल सेना के प्रमुख बने रहे। उन्होंने इस बात की हमेशा से ही वकालत की कि सेना को राजनीति से दूर रखा जाए, पर जब 24 अक्तूबर 1954 को देश की राष्ट्रीय असैंबली भंग कर दी गई तो उस समय के गवर्नर जनरल गुलाम मोहम्मद के आमंत्रण पर अयूब ने रक्षामंत्री का पद तो स्वीकार कर लिया मगर सेना प्रमुख का पद नहीं त्यागा। ऐसा कुछ ही बाद में जनरल परवेज मुशर्रफ ने किया। 

अयूब ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘‘देश में बढ़ते भ्रष्टाचार और बिगड़ती कानून व्यवस्था (आज भी हालात इस किस्म के ही हैं) को नियंत्रित करने की खातिर उन्होंने कैबिनेट रैंक का दर्जा स्वीकार किया।’’ कश्मीर और अफगानिस्तान से संबंधित मुद्दे गंभीर होते गए। अब भी बार-बार कश्मीर मसला उठाकर विशेष तौर पर आर्टीकल 370 को निरस्त करने के उपरांत पाकिस्तान यू.एन.ओ. तथा जनता को गुमराह कर रहा है। 

7 अक्तूबर 1958 को तत्कालीन राष्ट्रपति सिकंदर मिर्जा ने राजनीतिक पाॢटयों, संसद, राज्य सरकारों तथा संविधान को भंग कर मार्शल लॉ लगा दिया तथा अयूब खान को मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त किया। 24 अक्तूबर 1958 को अयूब राष्ट्रपति बने और सिकंदर मिर्जा को देश निकाला दे दिया गया। साथ ही जनरल मूसा खान को सेना प्रमुख नियुक्त किया गया। यह इमरान खान तथा जनरल बाजवा की मिलीभगत का ही नतीजा था कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई नवाज शरीफ की सरकार को बाहर कर  वर्ष 2018 में पी.टी.आई. की सरकार बनी तथा नवाज शरीफ को देश निकाला दे दिया गया। 

जनरल याहिया खान ने 26 मार्च 1969 को मुल्क की बागडोर संभाली तथा एक बार फिर से मार्शल लॉ लगा दिया गया। जुल्फिकार अली भुट्टो ने कुछ समय के लिए 20 दिसम्बर 1971 को लोकतंत्र की बहाली की मगर भुट्टो को 4 अप्रैल 1979 में फांसी दे दी गई। 29 नवम्बर को सेना प्रमुख का पद प्राप्त करने जा रहे जनरल आसिम मुनीर की बतौर आई.एस.आई. प्रमुख की कारगुजारी इमरान को रास न आई तथा उन्होंने 2019 में मुनीर को इस पद से हटा दिया। क्या अब मुनीर वही रंजिश अपने मन में रखेंगे? जानकारी के अनुसार सेना के कुछ जरनैल तथा निचले रैंक वाले अधिकारी इमरान के हक में हैं। यहां तक कि प्रदर्शनकारियों ने पेशावर सेना के कोर कमांडर की रिहायश के बाहर भी प्रदर्शन किया। इसलिए सब कुछ अच्छा सेना में भी नहीं है। 

बाज वाली नजर
पाकिस्तान इस समय कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है और आर्थिक संकट से गुजर रहा है। वहां महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आतंकवाद, गरीबी होने के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदायों पर कई किस्म के जुल्म किए जा रहे हैं जोकि सरकार के लिए बड़ी चुनौतियां हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि जनरल आसिम मुनीर 14 फरवरी 2019 को पुलवामा आतंकी हमले के समय आई.एस.आई. के प्रमुख थे। वही इस हमले के मास्टर माइंड भी कहे जाते हैं। 

अब जबकि पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एफ.ए.टी.एफ. की ग्रे लिस्ट में से निकाल दिया गया है मगर लश्कर-ए-तोएबा तथा जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों को फंडों की कमी नहीं आएगी तथा उनका इस्तेमाल पाकिस्तानी सेना भारत के विरुद्ध ही करेगी। मुझे याद है कि पाकिस्तान के दिवंगत राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक ने भुट्टो को जब वर्ष 1979 में फांसी के तख्ते पर लटकाने का निर्णय किया तो मैं उस समय एक प्रभावशाली ब्रिगेड के मुख्यालय में ब्रिगेड मेजर के पद पर तैनात था तथा टॉप सीक्रेट दस्तावेज मेरे हाथों में थे। पाकिस्तान के भीतर राजनीतिक अस्थिरता वाले माहौल में भारतीय सेना को तैयार-बर-तैयार रहने की जरूरत पड़ेगी।-ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों (रिटा.)  
    


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