‘क्या राजनीतिक षड्यंत्र के चलते किसान गुमराह हुए’

punjabkesari.in Saturday, Dec 26, 2020 - 05:07 AM (IST)

यह आश्चर्य की बात है कि व्यापारियों की मांगों को किसानों के माध्यम से बताया जा रहा है और हमारे सुधार की अनिवार्यता से पता चलता है कि कौन-सी पार्टी सत्ता में है। 1950 के दशक के ए.पी.एम.सी. अधिनियम ने भारतीय किसान को स्थानीय  (फिल्म ‘मदर इंडिया के’ लाला कन्हैया लाल) व्यापारियों के एकाधिकार से मुक्त कर दिया। 

व्यवहार में प्रत्येक मंडी में व्यापारी ने किसानों के साथ अपने संबंध बनाए हैं। व्यापारी उनको ऋण प्रदान करता है और किसान अपनी उपज को उस व्यापारी के माध्यम से ही बेचता है। ऋण लेने के लिए ऐसी बिक्री के खिलाफ एडवांस समायोजित किया जाता है। अधिक बार वही मंडी का व्यापारी एम.एस.पी. पर खाद्यान्न की बिक्री के लिए जिम्मेदार है जिससे एम.एस.पी. से नीचे किसान द्वारा कुल प्राप्ति कम हो जाती है (इस लेन-देन के लिए कमिशन स्पष्ट तौर पर किताबों से परे रहता है।) व्यापारियों का कुछ किसानों के साथ बना संबंध कन्हैया लाल की तुलना में निश्चित तौर पर कम शोषण का होता है। 

अगले कदम के तहत खेत के लिए अधिक खरीददारों की अनुमति देने और उत्पादन के शुरू करने से किसानों का शोषण कम होगा। तर्क एकदम साधारण है। यदि किसान के पास अपनी उपज के लिए एक खरीददार होगा तो यह ज्यादा आलोचनीय होगा। यदि यहां पर कम खरीददार होंगे तब किसान का शोषण कम होगा और यदि यहां पर खरीददारों की गिनती अनगिनत होगी तब किसान अच्छी हालत में होगा क्योंकि इस तरीके से वह जो अच्छी कीमत देगा उसी को अपनी फसल बेच सकता है। इसके लिए कुछ व्यक्ति इस साधारण तर्क के खिलाफ अपना मत दे सकते हैं। 

वास्तव में ए.पी.एम.सी. कानूनों के बहुत अधिक सुधार करने की अभी तक वकालत नहीं हुई है। मंडी व्यापारियों के विरोध को देखते हुए अब एक प्रभावशाली लॉबी दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर 2004 में राजस्थान में इसी कैबिनेट ने ए.पी.एम.सी. एक्ट के संशोधन को स्वीकृति दी और इसे वापस लेना पड़ा क्योंकि व्यापारी हड़ताल पर चले गए लेकिन किसान मंडी के अलावा अपनी उपज की बिक्री के लिए और रास्तों का विरोध क्यों करे? 

तीन कृषि कानूनों में क्या बदलाव आए हैं? किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम 2020 किसानों को मंडी से बाहर बेचने और खरीदार को ‘फार्म गेट’ खरीदने की आजादी देता है और इसके लिए मंडी लाइसैंस की अनिवार्यता नहीं होती। किसान के पास मंडी के भीतर ही बेचने का विकल्प होता है और यदि वह ऐसी कामना करता है तो उससे कुछ भी छीना नहीं जाता। किसानों का मानना है कि यह सुधार एम.एस.पी. तथा मंडियों के उन्मूलन के  लिए अग्रदूत है। यह सोचना बेहद कठिन है कि उन्हें इस निष्कर्ष पर कूदने के लिए आखिर किसने कहा? ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार किसानों को वह पूरा यकीन दिलाना चाहती है जिसे जारी रखने के लिए किसान चाहते हैं। इसके अलावा सरकार कानून में बदलाव भी करना चाहती है जैसे मंडी फीस को प्राइवेट मंडियों में भी लागू करना। 

किसान का मूल्य आश्वासन (सशक्तिकरण और संरक्षण) और कृषि सेवा अधिनियम 2020 मूल रूप से और अधिक कृषि मार्कीटिंग सुधार की सिफारिश करता है। यह किसानों को कमॢशयल फसलें जैसे सब्जियां तथा फल जिनकी एम.एस.पी. पर बेचे जाने वाले खाद्यान्नों से ज्यादा ऊंची वापसी होती है, के लिए प्रोत्साहित करता है। किसान भी अनुबंधित मूल्य पर अपनी फसल को बेचने के लिए प्रतिबद्ध हैं। भले ही बाजार की कीमतें अधिक हैं। हालांकि कानून इसके लिए एक साधन प्रदान करता है। यहां पर कोई भी विवशता नहीं है कि किसान एम.एस.पी. पर बेचे जाने वाली फसलों की बुवाई करने के लिए स्वतंत्र है। इसके अलावा किसान बाजार में भी अपनी संभावनाएं तलाश सकता है। अनुबंध के बिना किसान गैर-एम.एस.पी. फसलों की बुवाई कर सकता है। एक अतिरिक्त विकल्प के लिए वह कैसे प्रदर्शन कर सकते हैं। यदि किसान कानून के सुरक्षा विकल्पों को पसंद नहीं करता तब उन बदलावों की मांग कर सकता है। कानूनों को निरस्त करने के लिए किसान की मांग पूरी तरह से चौंकाने वाली है। 

अनिवार्य वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020 दालों, तेल के बीजों, खाने वाला तेल, प्याज तथा आलुओं के अलावा अनाज के भंडारण इत्यादि को उपलब्ध करवाता है यदि विशेष हालातों जैसे युद्ध, अकाल, प्राकृतिक आपदा या फिर कीमतों में अचानक उछाल हो। यह अधिनियम उपभोक्ता के हितों के लिए है। इसका मकसद कृषि उपजों को कम कीमत पर प्राप्त करना है। यदि खुदरा कीमतें कम हों तो फार्म गेट की कीमतें भी दब जाएंगी। राजस्थान में 2004 की हड़ताल के दौरान व्यापारियों की मांगें भी इसी तरह की थीं। एक राजनीतिक षड्यंत्र के चलते किसान गुमराह हुए हैं, की बात करना शायद स्पष्ट है।(लेखक भारत के कैग रह चुके हैं और पूर्व सिविल सर्वेंट हैं)-राजीव महर्षि


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