अदालतों के दरवाजे खटखटाने से पहले ‘मध्यस्थता’ हो

punjabkesari.in Thursday, Feb 13, 2020 - 12:47 AM (IST)

हम भारतीय आम तौर पर मुकद्दमेबाजी के लिए तैयार रहते हैं। छोटे से छोटे मुद्दों के समाधान के लिए हम अन्यों को अदालतों में घसीटते हैं। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि वर्तमान में 3 करोड़ से ज्यादा मामले देश की विभिन्न अदालतों में लंबित पड़े हैं। एक पीढ़ी द्वारा दायर मामले को दूसरी पीढ़ी तक पहुंचा दिया जाता है। अदालत परिसरों में हर तरफ भीड़ दिखाई देती है जो हमारी न्यायिक प्रणाली की सुस्त दशा को दर्शाती है। समय और पैसे की बर्बादी के साथ-साथ लोगों को अदालत जाने के लिए दुश्वारी झेलनी पड़ती है, जिससे वे अपने मामले दायर करने से हिम्मत तोड़ बैठते हैं। मगर अदालतों के दरवाजे खटखटाने का रुझान बढ़ता ही जा रहा है। 

इस संदर्भ में भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे के सुझाव पर विचार करना होगा।‘वैश्वीकरण के युग में मध्यस्थता’ पर एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में बोलते हुए उन्होंने कहा कि एक ऐसा व्यापक कानून बनाने के लिए यह उपयुक्त समय है जिसमें मुकद्दमे से पहले अनिवार्य मध्यस्थता शामिल हो। उन्होंने कहा कि इस कानून से कार्य क्षमता सुनिश्चित होगी और पक्षकारों एवं अदालतों के लिए मामलों के लंबित होने का समय घटेगा। बोबडे ने कहा कि भारत में संस्थागत मध्यस्थता के विकास के लिए एक मजबूत मध्यस्थता बार जरूरी है क्योंकि यह ज्ञान और अनुभव वाले पेशेवरों की उपलब्धता और पहुंच सुनिश्चित करेगा। 

मुख्य न्यायाधीश बोबडे द्वारा सुझाए गए सुझाव से हजारों मामले जोकि गलतफहमी के चलते अस्तित्व में आए, का निवारण हो सकेगा तथा इससे अदालतों में लम्बे खींचे जाने वाले मुकद्दमों से बचा जा सकेगा। इसी तरह का मानहानि का एक मामला जोकि मैं झेल रहा था, 12 वर्ष पूर्व सुझाया जा सकता था। इस मामले में शिकायतकत्र्ता ने प्रतिवादी से सम्पर्क नहीं साधा और न ही उससे अपनी शिकायत के बारे में कहा। यदि यहां पर कोई मध्यस्थता अदालत होती तो इस शिकायत का निवारण कुछ ही दिनों में हो जाना था। 

जस्टिस बोबडे ने कहा कि मुकद्दमेबाजी से पूर्व मध्यस्थता की प्रणाली पहले से ही विकसित देशों जैसे अमरीका, कनाडा, यू.के., आस्ट्रेलिया तथा सिंगापुर में प्रचलन में है। इस तरह के कानून को पेश कर लम्बी चलने वाली मुकद्दमेबाजी की प्रक्रिया पूर्व की बात हो जाएगी। भारत में इस तरह की सुनवाई की एक अलग सुविधा के तौर पर पहचान नहीं करवाई गई। हालांकि इस मंतव्य के इस्तेमाल के लिए नागरिक प्रक्रिया संहिता तथा आपराधिक प्रक्रिया संहिता में कुछ प्रावधान हैं। मुकद्दमेबाजी से पूर्व मध्यस्थता की सुनवाई में शिकायतकत्र्ता तथा उनके वकील तयशुदा समय से पूर्व बैठक में ट्रायल से पहले जज की उपस्थिति में झगड़े के वास्तविक कारणों को जांच सकते हैं ताकि मुकद्दमा लड़ रही दोनों पाॢटयां कोई अन्य मुद्दे न ला सकें। बोबडे ने कहा कि ऐसी प्रणाली से वकीलों की सम्भावी कमाई पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि उन्हें मध्यस्थता के लिए फिर भी इस्तेमाल में लाया जा सकेगा। 

मध्यस्थता समझौते में सबसे बड़ी दिक्कत इस बात की है कि कानून इसके लिए आपको बाध्य नहीं कर सकता। इसलिए बोबडे ने सुझाव दिया कि ऐसा कानून लागू किया जाना चाहिए ताकि दोनों प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को मध्यस्थता के परिणामों को मानने के लिए बाध्य होना पड़े तथा उसके बाद उन्हें किसी दूसरी ऊंची अदालत में इस फैसले के खिलाफ चुनौती न देनी पड़े। उन्होंने यह भी कहा कि इस प्रक्रिया के माध्यम से जुबानी बहस की लंबी प्रक्रिया, लंबे लिखित निवेदन से भी बचा जा सकता है। 

यह स्थिति और भी विकट हो जाती है क्योंकि जजों की बेहद कमी है, जिसका कारण सरकार ही जानती है। 1987 में विधि आयोग ने 10 लाख लोगों पर 10 जज की संख्या को बढ़ाकर 50 जज करने की सिफारिश की थी। दुर्भाग्यवश स्थिति वैसी की वैसी ही रही। उसके बाद 25 करोड़ की आबादी बढ़ गई। कानून मंत्रालय के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, देश में विभिन्न उच्च न्यायालय 420 जजों की कमी झेल रहे हैं। पिछले वर्ष एक अक्तूबर को उच्च न्यायालय 1079 की स्वीकृत क्षमता के विपरीत 659 जजों से काम चला रहे हैं। इसी तरह अधीनस्थ न्याय तंत्र में 5 हजार रिक्तियां खाली पड़ी हैं। इसलिए भारत के मुख्य न्यायाधीश बोबडे द्वारा दिए गए सुझाव पर सरकार को गम्भीरता से विचार करना होगा।-विपिन पब्बी
 


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