एलोपैथी और आयुर्वेद की फालतू तकरार

punjabkesari.in Tuesday, Jun 01, 2021 - 04:49 AM (IST)

स्वामी रामदेव और आई.एम.ए. के बीच तकरार जारी है। एक बहस के दौरान आई.एम. के एक डाक्टर ने रामदेव से यह तक कह दिया कि आप तो हमारे साथ बैठने के लायक भी नहीं हैं। इस तरह का उच्च भ्रू रवैया बेहद निंदनीय है। हालांकि इस डा. की सोशल मीडिया पर बहुत से लोगों ने खूब तारीफ भी की।

सच तो यह है कि स्वामी रामदेव और आई.एम.ए. दोनों बड़बोलेपन के शिकार हैं और दोनों अपने को देश के लोगों के तारनहार की तरह पेश कर रहे हैं। जबकि अपने यहां तो दादी-नानी और हमारे घर के बुजुर्गों को तमाम किस्म के घरेलू नुस्खे मालूम हैं, जो बेहद कारगर भी हैं। अपना रसोईघर एक तरह से मैडीकल स्टोर भी है जिसमें  किस रोग के लिए हल्दी इस्तेमाल करनी है, किसके लिए अजवायन, किसके लिए जीरा और काला नमक या अदरक सबको मालूम है। 

यहां कई साल पहले का एक उदाहरण देना चाहूंगी। इस लेखिका का एक भतीजा अमरीका में दशकों से रहता है। उसका कार्यक्षेत्र भी बायोमैडीकल इंजीनियरिंग है। एक बार उसे तेज पेट दर्द हुआ।  वह डाक्टर के पास गया। डाक्टर ने तरह-तरह के टैस्ट किए। जब उसने डाक्टर से पूछा कि उनके अनुसार कौन-सा रोग हो सकता है तो डाक्टर ने कहा कि वह कैंसर को ढूंढ रहे हैं। भतीजा बड़ा परेशान हुआ।  उसने भारत में रहने वाली अपनी मां को फोन किया। मां ने कुछ घरेलू उपचार बताए और एक ही दिन में पेट दर्द चला गया। मगर जो डाक्टर पेट दर्द में कैंसर ढूंढ रहा था, उसकी खोजबीन का बिल आया-इक्कीस हजार डालर।

कैंसर पश्चिम में इकोनामी बूस्टर बीमारी कही जाती है। यही कारण है कि आज तक ऐसा शायद ही कोई  इलाज ढूंढा गया है, जो इस रोग को खत्म कर सके। बल्कि जितनी भी बीमारियां हैं, उनकी नित नई दवाएं तो बनती हैं, लेकिन वे पूरी तरह से ठीक हो जाएं, यह क पनियां नहीं चाहतीं। इसीलिए पहले तो बीमारी के खात्मे संबंधी किसी रिसर्च की अनुमति ही शायद नहीं दी जाती। अगर कभी ऐसा हो भी जाए तो ऐसी रिसर्च को कूड़ेदान के हवाले कर दिया जाता है। 

बहुत साल पहले डा. विनिक ने इनगैप नामक जीन की मदद से टाइप वन डायबिटीज को पूरी तरह समाप्त करने पर शोध किया था। उनकी रिसर्च को इंसुलिन बनाने वाली एक बड़ी क पनी सहायता कर रही थी। जब  रिसर्च के परिणामों के बारे में डा. विनिक ने  उस क पनी के सी.ई.ओ. को बताया तो  उसने कहा कि अगर टाइप वन डायबिटीज खत्म हो गई तो इंसुलिन की तो जरूरत ही नहीं रहेगी, तब हम क्या करेंगे। बस डा. विनिक की आर्थिक सहायता रोक दी गई। इसी तरह डा. डेनिस फाटसमैन ने जब यह बताया कि इंसुलिन बनाने वाले बीटा सैल को पुनर्जीवित किया जा सकता है, तो उनके शोध पत्रों को छपने तक नहीं दिया गया क्योंकि अब तक की मान्यता यह थी कि एक बार के मरे बीटा सैल को दोबारा एक्टिव नहीं किया जा सकता। 

जिसे वैज्ञानिक सोच कहते हैं, वह अवधारणा एक तरह से रूढ़ हो चली है क्योंकि आज विज्ञान कुछ कहता है, कल कुछ कहता है। हां वैज्ञानिक विचार के उज्ज्वल पक्ष के पीछे तमाम कारगुजारियां छिपा ली जाती हैं। दवा बनाने वाली क पनियां एक तरफ तो मानवता की सेवा का दावा करती हैं, लेकिन उनकी नजर सिर्फ  मुनाफे पर रहती है इसीलिए कभी दवाओं के साइड इफैक्ट नहीं बताए जाते। कई बार एक रोग की दवा खाने से वह रोग तो ठीक होता ही नहीं है, अनेक रोग होते जाते हैं। रोग बढ़ते जाते हैं, दवाएं भी बढ़ती जाती हैं। 

एलोपैथी अपने अलावा किसी को कुछ मानती भी नहीं। जबकि अगर बीमारी ठीक करनी है तो सभी तरह की पद्धतियों को मिलाकर इलाज किया जा सकता है। उनका लाभ उठाया जा सकता है। पिछले दिनों ही एक खबर थी कि अखिल भारतीय आयुॢवज्ञान संस्थान के आयुर्वैदिक सैंटर में 575 कोरोना के मरीज भर्ती हुए थे। सब ठीक हो गए। यानि कि सौ फीसदी सफलता। इसको मीडिया में कोई खास जगह नहीं मिली। न जाने क्यों भारतीय पद्धतियों को पिछड़ा माना जाता है। जबकि अपने यहां सुश्रुत के समय से वे आप्रेशन हो रहे हैं जिन पर एलोपैथी अपना एकाधिकार समझती है। 

एक बार एक किताब में प्राचीन भारत के उच्च ज्ञान के बारे में पढ़ रही थी जिसमें बताया गया था कि पहले मामूली-सी बातों पर राजा किसी की भी नाक काटने का आदेश दे देता था लेकिन सड़क पर इतने नकटे नजर नहीं आते थे। कारण कि लोग अपनी कटी नाक को लेकर वैद्य के पास  चले  जाते थे और वह जोड़ देता था। सच जो भी हो एलोपैथी को भी आयुर्वेद का अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है। आई.टी.ओ. पर आई.एम.ए. के द तर के बाहर बोर्ड पर आप इस अपमान को देख सकते हैं जिस पर लिखा है-एलोपैथी प्लस आयुर्वेद बराबर मिक्सोपैथी जो कि खतरनाक है। आप दवाओं का कॉकटेल बनाएं तो वह सब ठीक लेकिन किसी रोग की दवा के साथ कोई तुलसी का काढ़ा पी लें तो वह खतरनाक। क्यों भई।-क्षमा शर्मा


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