कोरोना के दौरान यहां सब ‘राम भरोसे’

punjabkesari.in Sunday, Jun 21, 2020 - 03:42 AM (IST)

वास्तव में वायरस के साथ रह कर हम क्या सीख सकते हैं? जब तक हमें इस वायरस की कोई वैक्सीन नहीं मिल जाती तब तक यह हमारे लिए एक अपरिहार्य चुनौती है। अब जबकि हमने अनलॉक-1 में प्रवेश कर लिया तो यह मुख्य रूप से एक दिलचस्प सवाल है, क्योंकि मैंने 2 व्यापक और बहुत अलग उत्तरों को खोजा है। यदि आप इससे सहमत हैं तो मुझे बताएं?

ऐसे लोग भी हैं जो अपने घर पर रह कर एक ऐशो-आराम का जीवन जी रहे हैं। उन्होंने मार्च के अंत में बंद दरवाजों के पीछे रह कर तालमेल बिठाया। वह अभी तक इन दरवाजों के पीछे जीवन गुजार रहे हैं। अनलॉक उन्हें मास्क पहनने और 2 मीटर की आवश्यक दूरी रखने की अनुमति देता है लेकिन फिर भी उन्होंने इस विकल्प को नहीं चुना। 

वह सुरक्षित हैं मुझे केवल उन पर एक संदेह है। क्या यह वायरस के साथ जीना सीख रहे हैं? सच कहूं तो यदि आप अपने घर को अपनी जेल में बदलते हैं तो यह एक बहुत ही अलग जीवन है जिसका आप नेतृत्व कर रहे हैं। वास्तव में आप यह कह सकते हैं कि आप दुनिया के डर से बाहरी जीवन को छोड़ दरवाजों के भीतर रह रहे हैं। 

रैजीडैंट वैल्फेयर एसोसिएशन्स ने घरेलू कर्मचारियों को अपने घरों के अंदर आने की अनुमति नहीं दी। यह भी एक विडम्बना है। विदेश यात्रा करने वालों ने भारत में कोरोना का प्रवेश करवा दिया। अब इसका प्रसार हो चुका है। हम गरीब और वंचित हमवतनों को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हैं इसलिए उनके लिए 2 भारत बन चुके हैं। विशेष तौर पर एक घर है जहां किसी को प्रवेश करने की अनुमति नहीं और दूसरा बाहरी व्यापक छोर है जहां प्रत्येक डर में रह रहा है और गरीबों से बच रहा है। 

वायरस के साथ रहने वाले दूसरे लोग एक साधारण जीवन जीने का प्रयास कर रहे हैं। वह मास्क तथा चेहरे को बचाने के लिए एक कवच का इस्तेमाल कर रहे हैं और दो मीटर की सामाजिक दूरी बना रहे हैं। वे इस आशा में हैं कि यह वायरस उन पर हमला नहीं करेगा लेकिन क्या यह आशा यथार्थवादी है? मास्क पहनना और फेस शील्ड को लागू करना अपेक्षाकृत आसान है लेकिन 2 मीटर की दूरी रखना आसान नहीं है। चाहे यह कार्यालय हो, बस स्टॉप हो, करियाना स्टोर हो, टैक्सी हो, स्ट्रीट वैंडर से सब्जी खरीदना हो या फिर एक हॉकर से अखबार लेना हो। ऐसे स्थानों पर हम एक-दूसरे से करीब एक कदम की दूरी ही बनाते हैं। ऐसे लोग अपने आपको राम भरोसे या फिर अल्ला रक्खा समझते हैं। वह ऐसे ही जीना सीख रहे हैं। 

अब अपने आपको विराम दें और विचार करें कि क्या आपने दो उत्तरों के बीच कोई स्पष्ट लिंक देखा है? भय ईश्वर का दूसरा नाम है। यह एक सिक्के के दो चेहरे हैं। पहले मामले में भय कुछ उद्यम को बाहर करने से इंकार करना सुनिश्चित करता है। लोग ऐसा कर सकते हैं क्योंकि वे घर पर रहने का जोखिम उठा सकते हैं। मगर आय का एक बहुत बड़ा नुक्सान नहीं उठा सकते।

आर्थिक सौभाग्य नि:संदेह उनके भय की भावना की पुष्टि करता है। दूसरे लोगों के पास काम पर वापस जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उनके लिए घर पर रहना कोई विकल्प नहीं है। न तो उनकी आय और न ही उनके घरों का आकार इसकी अनुमति देता है। वह जोखिम का सामना करते हैं कि उनके साथ ऐसा नहीं होगा। 

दुर्भाग्य से महामारी संबंधी अनुमान केवल लकवाग्रस्त भय या हताश आशा को मजबूत करते हैं। भारत दैनिक वृद्धि के मामले में पहले से ही तीसरे स्थान पर है, कुल मामलों तथा पंजीकृत दैनिक मौतों के मामले में चौथा सबसे बड़ा देश है और कुल मृत्यु के मामले में 9वां सबसे बड़ा देश है। यहां तक कि विशेषज्ञ भी यही कहते हैं कि भारत में हमारे पास सितम्बर तक 200 मिलियन संक्रमित हो सकते हैं तथा नवम्बर के मध्य तक यह चोटी तक पहुंच सकता है। 

इसलिए मैं अपने आप से पूछता हूं कि क्या हम उन लोगों के बीच विभाजित हो सकते हैं जो डर के साथ रहते हैं या उम्मीद के साथ जीते हैं? मुझे पता है कि विशाल बहुमत बाद की श्रेणी के साथ है। यह गिनती शायद 90 प्रतिशत की हो सकती है। हम पहले से ही धर्म और क्षेत्र, जाति और भोजन, जातीयता और रंग से विभाजित हैं। अब जिस तरह से हम इसके साथ रहना चाहते हैं तो क्या वायरस हमें विभाजित करेगा? क्या हम ऐसे लोगों में फर्क देखना चाहेंगे जो अमीर हैं तथा अपने दरवाजे बंद रखते हैं और दूसरी तरफ वे लोगहैं जिनके पास घुलने-मिलने और समायोजन के अलावा कोई चारा नहीं है। हम सभी की रक्षा करने के लिए भगवान से प्रार्थना करेंगे।-करण थापर


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