पंजाब के उलझे राजनीतिक वातावरण का हल है अकाली-भाजपा गठजोड़ की बहाली

punjabkesari.in Thursday, Aug 05, 2021 - 06:43 AM (IST)

क्या शिअद-भाजपा में फिर गठजोड़ हो सकता है? अनेक लोग इसे अब कोरी कल्पना ही बताएंगे परंतु अनुभवी राजनीतिज्ञ वही है जो हालात की उलझन को सुलझाए, सद्भावना पूर्ण एवं सुंदर वातावरण कायम करे। जब से पंजाब और राष्ट्रीय स्तर पर शिअद-भाजपा गठजोड़ टूटा है, तभी से अन्य सभी विरोधी दलों की जैसे बांछें खिल गई हैं। 

स्थिति यह है कि शिअद ने भाजपा से नाता टूटने के बाद उसको मिलने वाले वोटों में संभावित कमी को कुछ सीमा तक पूरा करने के लिए विवश होकर बहुजन समाज पार्टी से हाथ मिला लिया है। इन दोनों ही दलों ने विभिन्न जिलों में कुछ प्रदर्शन एवं धरने आदि लगाने का सिलसिला शुरू भी कर दिया है परंतु इसके बावजूद अभी यह कहना बहुत मुश्किल है कि अकाली दल को वास्तव में इससे क्या फायदा होगा! हालांकि यह तो निश्चित ही है कि शिअद के लिए भाजपा का विकल्प बसपा नहीं हो सकती। फिर भी इसे मजबूरी का सौदा ही कहा जा सकता है। शिअद ने राजनीति की शतरंज पर अपनी गोटियां बिछाने की कोशिश तो कर ली परंतु वास्तविक प्रश्न तो यह है कि इस सबके बावजूद क्या वह चुनावी बाजी जीत भी पाएगा? 

शिअद-भाजपा गठजोड़ टूटने के बुनियादी कारण पर पहले विचार करना जरूरी है ताकि देखा जाए कि क्या वर्तमान स्थिति में दोनों में गठजोड़ हो भी सकता है और यदि हो सकता है तो कैसे? क्या दोनों दलों के नेता इस विषय में सोचने को तैयार भी हंै? और अंतिम प्रश्न यह है कि यदि यह मान लिया जाए कि यह गठजोड़ दोबारा बन जाता है तो यह किस कार्यक्रम पर आधारित हो सकता है? क्या भाजपा तीनों कृषि कानूनों को वापस ले लेगी जिस पर केन्द्र और किसानों में 9 महीनों से गतिरोध बना हुआ है और हजारों किसान दिल्ली के प्रवेश मार्गों पर धरने लगाकर बैठे हुए हैं? 

सच्चाई यह है कि इस समय तीनों कृषि कानून तो लागू ही नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इनका क्रियान्वयन रोका हुआ है और केन्द्र सरकार ने भी इन कानूनों को डेढ़ साल के लिए स्थगित कर रखा है। अत: केन्द्र सरकार को अब यह घोषणा करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इन कानूनों पर अमल 2024 तक रोक कर यह मामला अगली आने वाली सरकार पर छोड़ा जाता है। जब देश में कृषि कानून लागू ही नहीं हैं और सरकार इन्हें 2024 तक लागू न करने का ऐलान कर दे तो इस प्रकार से किसानों की बात भी रह जाएगी। तब सरकार किसानों को कह सकती है कि वे इस अवधि में अपने खेती कानूनी का प्रारूप तैयार कर लें और सरकार भी नई स्थिति में नया फैसला ले सकती है। ऐसे फार्मूले से सरकार और किसान दोनों राजी हो सकते हैं। 

फिर किसानों को स्थाई रूप से राहत देने के वास्ते सरकार एक स्थाई किसान भलाई बोर्ड बनाए जो किसानों की सब समस्याएं सुने, उसके निराकरण के लिए सरकार को सिफारिशें करे। ऐसे प्रस्तावित बोर्ड में किसान संयुक्त मोर्चा के प्रतिनिधि भी लिए जाएं। इस प्रकार खेती कानूनों की समस्या हल करने का मुश्किल काम यदि सरकार और किसान नेता निपटा लें और अकाली दल भी इसके लिए सहयोग करे तो 9 महीनों से चला आ रहा गतिरोध समाप्त हो जाएगा एवं किसान वर्ग में पाई जाती बेचैनी लगभग खत्म हो सकती है। 

फिर भाजपा के साथ गठजोड़ करने से अकाली दल को अधिक फायदा होगा। 117 सदस्यीय पंजाब विधानसभा में अकाली दल के केवल 14 सदस्य ही 2017 के आम चुनाव में जीते थे। जबकि भाजपा केवल 3 सीटों पर सिमट गई थी। कांग्रेस ने 77 सीटें जीतकर कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में सरकार बना ली थी। तब आम आदमी पार्टी ने 20 सीटों पर कब्जा करके अकाली दल को तीसरे दर्जे की पार्टी की स्थिति पर ला दिया था। दो सीटें लोक इंसाफ पार्टी (बैंस बंधु) जीत गई।

इस प्रकार यदि अकाली-भाजपा गठजोड़ दोबारा बनता है तो पंजाब का वर्तमान राजनीतिक नक्शा ही बदल जाएगा। शिरोमणि अकाली दल से पृथक हुए प्रमुख नेताओं का शक्तिशाली धड़ा शायद फिर सरदार बादल से हाथ मिला ले। इस प्रकार से अकाली-भाजपा गठजोड़ और मजबूत होकर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को टक्कर दे सकता है परंतु असल सवाल अभी बना हुआ है कि क्या शिरोमणि अकाली दल एवं भाजपा के नेता इस दिशा में कुछ सोचने को तैयार भी हैं। 

दूसरा सवाल यह है कि क्या अकाली दल के लिए भाजपा एक सही और वास्तविक बदल बन सकती है। अगर केवल जिला जालंधर की बात करें तो बसपा का वोट बैंक जालंधर पश्चिमी और करतारपुर सीटों पर तो दिखाई देता है परंतु इस समय ये दोनों सीटें तो कांग्रेस के पास हैं। अन्य शहरी सीटों पर बसपा का वोट बैंक नाममात्र है। इस प्रकार बसपा भाजपा के बराबर वोटें अकाली दल को नहीं दिला सकती इस प्रकार अकाली दल का आखिरकार फायदा इसी में है कि वह भाजपा को जरूर साथ ले। जहां तक बसपा के साथ अकाली दल के हुए गठजोड़ का सवाल है तो अकाली दल इसे बनाए भी रख सकता है। अकाली दल में प्रकाश सिंह बादल जैसे कद्दावर चोटी के राजनीतिक नेता सारे देश में नहीं हैं। इस प्रकार ये तो उनकी मर्जी पर है कि वह इस ओर कोई पहलकदमी करें या न करें। 

पिछला रिकार्ड बताता है कि कांशीराम जी के नेतृत्व में बसपा कभी पंजाब में एक शक्तिशाली राजनीतिक दल के रूप में उभरी थी। मई 1996 में 11वीं लोकसभा के चुनाव में बसपा ने पहली बार अकाली दल के साथ समझौता किया था जो बहुत ही शानदार और सफल रहा। पंजाब में बसपा की असल ताकत पर और नजर डालने की जरूरत है। क्योंकि विधानसभा के पिछले हुए चुनाव में इसके वोटों का प्रतिशत लगातार घटता गया है। 2002 में इसका वोट हिस्सा 6.61 प्रतिशत था तो 2007 में यह 4.17 प्रतिशत, 2012 में 4.03 प्रतिशत और 2017 में केवल 1.59 प्रतिशत रह गया। उधर 2017 में अकाली दल और भाजपा का विधानसभा चुनाव में वोटों का हिस्सा 30.6 प्रतिशत तो था परंतु अकाली दल को केवल 14 और भाजपा को केवल 3 सीटें (कुल 17 सीटें) ही प्राप्त हो सकी थीं। 

वर्तमान अकाली-बसपा गठजोड़ में बसपा को 20 सीटें मिली हैं मगर नवांशहर सीट को छोड़कर, जहां बसपा उम्मीदवार को 10 हजार से अधिक वोट मिले थे बाकी किसी भी क्षेत्र में इसके उ मीदवार 1 हजार वोट भी प्राप्त न कर सके और इन सभी की जमानतें भी जब्त हो गई थीं। ऊपर बताए गए विश्लेषण के मुताबिक अकाली दल को बसपा के साथ गठजोड़ से कोई फायदा होता तो दिखाई नहीं देता, शायद बसपा को कुछ लाभ हो जाए। इस तरह एकमेव बदल अकाली दल के लिए भाजपा के अलावा क्या हो सकता है।-ओम प्रकाश खेमकरणी


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