‘संसद में कृषि कानूनों पर पुनर्विचार हो’

punjabkesari.in Saturday, Jan 30, 2021 - 05:03 AM (IST)

संसद के बजट सत्र में बहुत सारे जरूरी काम होंगे। इसी सत्र में कृषि कानूनों के संवैधानिक समाधान पर सहमति हो जाए तो पुलिसिया डंडे के बगैर ही किसान आन्दोलन खत्म हो सकता है। संसद की बजाय पुलिस या सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से इस समस्या के समाधान या टालमटोल की कोशिश के अनेक खतरे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जिस चार सदस्यीय समिति का गठन किया था, उसके एक सदस्य तो पहले ही अलग हो गए। आंदोलनकारी किसानों ने भी इस समिति के बहिष्कार का फैसला लिया है। 

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बोबडे ने पिछली सुनवाई के दौरान कहा था कि समिति के पास कोई अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के नियम और सिविल कानून के अनुसार भी इस समिति की कोई संवैधानिक वैधता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में लंबित अनेक पटीशनों का निपटारा करने के लिए आगे चलकर  पांच या ज्यादा जजों की  संविधान पीठ का गठन करना होगा। चीफ जस्टिस बोबडे तीन महीने के भीतर रिटायर हो जाएंगे, इसलिए नई बैंच की अध्यक्षता किसी दूसरे सीनियर जज को ही करनी होगी। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से इस मसले को टालने में भले ही मदद मिले लेकिन समस्या के जल्द समाधान की ज्यादा गुंजाइश नहीं दिखती। 

कानून पर रोक भी संसद से ही लग सकती है : इसमें अब कोई दो राय नहीं बची कि संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार इन कानूनों को बनाने के लिए केंद्र सरकार के पास विधायी शक्ति नहीं थी। स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने का दावा करने वाली सरकार, अभी तक यह स्पष्टीकरण नहीं दे पाई कि कृषि को समवर्ती सूची में लाने के लिए संविधान संशोधन क्यों नहीं किया गया? केंद्र सरकार इन कानूनों को हठधर्मिता से यदि लागू करे और विपक्ष शासित राज्य उन्हें लागू करने से इंकार कर दें तो फिर इन क्रांतिकारी कानूनों का मकसद ही खत्म हो जाएगा। इन कानूनों के अलावा विकास के एजैंडे को भी लागू करने के लिए राज्यों के साथ किसी भी टकराव को रोकना संघीय व्यवस्था की जरूरत भी है। 

किसानों से कई दौर की बातचीत के बाद कृषि मंत्री तोमर ने कानूनों पर डेढ़ साल के रोक का फार्मूला दिया था। इसके अलावा भी इन तीन कानूनों के कई प्रावधानों को बदलने पर केंद्र सरकार सहमत हो गई थी। संसद के दोनों सदनों से पारित और राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कानूनों पर रोक लगाने का अधिकार सिर्फ संसद या सुप्रीम कोर्ट को ही है। केशवानंद भारती मामले में 13 जजों के फैसले और संसद की अनेक बहसों का लब्बोलुआब यह है कि संसद के कानून बनाने के अधिकार पर न्यायपालिका का बेवजह हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। पहले अध्यादेश और फिर जल्दबाजी में पारित किए गए इन कृषि कानूनों का समाधान भी अब संसद के पटल से निकले तो भारत की संसदीय व्यवस्था और भी मजबूत होगी। 

प्रधानमंत्री मोदी ने दावोस शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा भारत में जल्द ही सख्त डाटा सुरक्षा कानून लागू होगा। सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों के 3 साल पुराने फैसले के बावजूद डाटा सुरक्षा कानून पर पहले जस्टिस श्रीकृष्ण समिति और फिर संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया। ऐसा विमर्श कृषि कानूनों के लिए हो तो गाड़ी पटरी पर आ जाएगी। 

लाल किले में हुई हिंसा और अराजकता के दोषियों को सख्त सजा मिले : केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि किसान आंदोलन के बहाने खालिस्तानी और अलगाववादी ताकतें भारत में अपना विस्तार कर रही हैं। दिल्ली पुलिस की जांच में भी पाकिस्तान के माध्यम से सोशल मीडिया के दुष्प्रचार होने के प्रमाण सामने आए हैं। इन सबके बावजूद ट्रैक्टर मार्च को दिल्ली में अनुमति देने से पहले सभी लोगों की पुलिस ने सही पड़ताल क्यों नहीं की? इसलिए जांच बढऩे पर किसान संगठनों के साथ सरकार और दिल्ली पुलिस भी कटघरे में खड़ी होगी। लाल किले में धार्मिक ध्वज लहराने वालों को अंतर्राष्ट्रीय अलगाववादी संस्थाओं से इनाम की पेशकश मिलने की खबरें हैं। 

दीप सिद्धू जिसके राजनीतिक जुड़ाव पर अनेक कयास लगाए जा रहे हैं, वह फेसबुक से लोगों की पोल खोलने की धमकी दे रहा है। उसे हिरासत में लेकर सख्त पूछताछ हो तो लाल किले के असल अपराधी बेनकाब हो सकते हैं। अनेक किसान नेताओं के खिलाफ लुकआऊट नोटिस जारी करके उनके पासपोर्ट रद्द किए जा रहे हैं। इससे मीडिया की सुर्खियां भले ही बढ़ें पर मामले की सही जांच कैसे होगी? किसान संगठनों के जो नेता ङ्क्षहसा के वक्त मौके पर मौजूद नहीं थे, अदालतों के सामने उनका गुनाह कैसे साबित होगा? किसान संगठनों के नेताओं ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए पुलिस को अंडरटेकिंग दी थी, जिसका पालन नहीं करने पर राजद्रोह और यू.ए.पी.ए. के तहत तो केस तो दर्ज नहीं हो सकता। उत्तर प्रदेश सरकार ने दो दिन पहले ही लॉकडाऊन के दौरान दर्ज किए गए 10 हजार मामलों को वापस लेने का फैसला लिया है। 

भीड़, प्रदर्शन और हिंसा के अधिकांश मामलों में राजनीतिक सहूलियत से मुकद्दमे खत्म हो जाते हैं। इसलिए दिल्ली में हुई हिंसा और उस पर दर्ज हो रहे पुलिस मामलों का सीमित दौर में ही महत्व है। 22 साल पहले हुए किसान आंदोलन में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में कई राज्यों से आए लगभग 5 लाख किसानों ने मिलकर बोट क्लब पर कब्जा कर लिया था। ट्रैक्टर मार्च के बाद भड़की अराजकता के बावजूद आंदोलनकारी दिल्ली से वापस चले गए और नेताओं ने संसद के घेराव के कार्यक्रम को रद्द कर दिया। इससे देश की राजधानी कई और बड़े संकटों से बच गई।-विराग गुप्ता(एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट) 
 


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