अफस्पा : जब कानून एक हथियार बन जाए

punjabkesari.in Sunday, Jan 02, 2022 - 07:02 AM (IST)

नवम्बर 2008 के अंत में मुम्बई शहर में आतंकवादी हमलों के मद्देनजर मुझसे वित्त मंत्रालय छोड़ कर गृह मंत्रालय संभालने का निवेदन किया गया। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं इसे लेकर हिचकिचाहट में था क्योंकि मैंने यह आशा पाल रखी थी कि मैं मई 2009 में वित्त मंत्री के तौर पर अपने पांच वर्ष पूर्ण कर लूंगा। यद्यपि मुझे जल्दी ही एहसास हो गया कि मुझे ड्यूटी पर बुला लिया जाएगा जिसका पालन करना मेरा कत्र्तव्य था। 1 दिसम्बर 2008 को मैं स्थानांतरित हो गया। 

अपने कार्यकाल की शुरूआत में भी मुझे सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) कानून 1958 (अफस्पा) हटाने की याचिकाओं का सामना करना पड़ा। कानून के अंतर्गत केंद्र सरकार किसी क्षेत्र को ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित करके वहां यह कानून लागू कर सकती है। इसी तरह 8 राज्यों में, राज्यपाल (राज्य सरकार पढ़ें) इस शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह कानून घोषणा के जारी रहने की समय-सीमा की शर्त बारे नहीं बताता। हालांकि सुप्रीमकोर्ट ने दखल दिया तथा संबंधित सरकार को 6 महीनों बाद कानून की समय-सीमा समाप्त होने से पूर्व उसकी घोषणा बारे समीक्षा करने को कहा। 

इस बाध्यता ने मानवाधिकार कार्यकत्र्ताओं को कुछ राहत दी क्योंकि एक बार जब कानून लागू कर दिया जाता है तो राज्य सरकारें इस घोषणा की समाप्ति करने की अनिच्छुक बन जाती हैं। उदाहरण के लिए मणिपुर ने  इसे बार-बार अधिसूचित किया तथा 1980 के दशक से यहां यह कानून लागू है। असम ने 2017 से प्रत्येक 6 महीनों बाद इस घोषणा की समीक्षा तथा इसका नवीनीकरण किया है। केंद्र सरकार ने नागालैंड (पूरा राज्य) तथा अरुणाचल प्रदेश (तीन जिले तथा दो पुलिस स्टेशन क्षेत्र) को नियमित रूप से ‘गड़बड़ी वाले क्षेत्र’ अधिसूचित किया है। 

इरादतन प्रतिरक्षा, प्रभाव दंड मुक्ति
राज्य (केंद्र अथवा राज्य सरकार) सशस्त्र बलों के आभारी हैं-सेना, वायुसेना तथा केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल। उनके पास निर्णय लेने की शक्तियां हैं। जहां पर सेना की तैनाती की जाती है वहां पर असल शक्ति सेना के पास होती है। मैंने इस कानून की समीक्षा की है। इस कानून के अंतर्गत सशस्त्र बलों को जो शक्तियां मिली हैं वे यदि नर्म भाषा में भी कहें तो तानाशाहीपूर्ण हैं। इन शक्तियों में किसी भी शरण स्थल अथवा ढांचे को नष्ट करना, बिना वारंट के गिरफ्तारी तथा बिना वारंट के तलाशी लेना तथा बरामदगी करना आदि शामिल हैं। इनमें से सभी शक्तियां सामान्य कानून यानी कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर के विपरीत हैं, सिवाय संकुचित तथा विशेष परिस्थितियों के अंतर्गत। सबसे सख्त शक्ति एक पुलिस अधिकारी को सौंपी गई है-यदि वह जरूरी समझे तो पांच अथवा अधिक लोगों के एकत्र होने पर किसी व्यक्ति पर गोली चलवा सकता है, यहां तक कि उससे मौत भी हो सकती है। 

अफस्पा के खिलाफ मामला यह है कि सशस्त्र बलकर्मी यह प्रतिबिंबित करने के लिए नहीं रुकते कि क्या ताकत का इस्तेमाल, आमतौर पर जानलेवा बल, नजरअंदाज करने योग्य है। एक बार जब वे संघर्ष की स्थिति में आ जाते हैं, वे विकल्पों को ध्यान में नहीं रखते, वे अधिकतम बल का इस्तेमाल करते हैं। कानून की धारा 6 सशस्त्र बलों के कर्मचारियों को मुकद्दमे के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रदान करती है। सच्चाई यह है कि यह व्यवस्था सशस्त्र बलों के कर्मचारियों को दंड मुक्ति की भावना से कार्य करने को प्रोत्साहित करती है। यह एक सामान्य ज्ञान का विषय है कि सामान्य पुलिस शक्तियों का भी दुरुपयोग किया जाता है। आमतौर पर इस दुरुपयोग के लिए स्वीकृति राज्य की नीति द्वारा दी जाती है जैसे कि उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में ‘मुठभेड़ें’ कानून लागू करने वाली नीति में समाहित हैं तथा उनका गर्वपूर्ण प्रचार किया जाता है। एक ऐसे राज्य में, जिसे एक ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित किया गया है, सशस्त्र बल अत्यंत दबाव में कार्य करते हैं तथा अफस्पा एक हथियार बन जाता है। 

कानून वापस लेने का मामला मजबूत अफस्पा को वापस लेने की मांग पुरानी है। 2005 में जस्टिस जीवन रैड्डी समिति ने इसे वापस लेने का सुझाव दिया था। इस नजरिए की उसके बाद आने वाली कई समितियों तथा आयोगों ने पुष्टि की थी। अंतिम थी जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति, जिसने अफस्पा को जारी रखने की समीक्षा की अत्यंत जरूरत को रेखांकित किया था। मेरे विचार में अफस्पा को वापस लेना अत्यावश्यक है। आतंकवाद से निपटने के लिए कई अन्य कानून हैं जैसे कि गैर-कानूनी गतिविधियां (निवारण) कानून (यू.ए.पी.ए.) तथा राष्ट्रीय जांच कानून। दरअसल यू.ए.पी.ए. की कार्यशीलता के अनुभव के साथ भी इस कानून की समीक्षा का मामला मजबूत बनता है। अफस्पा को वापस लेने का कार्य चिरलंबित है। 

असम के मामले में यह शिक्षाप्रद है। 2017 में गृह मंत्रालय ने असम को पूरी तरह से अफस्पा को हटाने अथवा जहां यह लागू था उन क्षेत्रों में कमी लाने को कहा था। असम ने इंकार कर दिया। 2018 में गृह मामलों पर स्थायी समिति ने असम से पूछा था कि क्यों यह जरूरी था कि गृह मंत्रालय की सलाह के खिलाफ पूरे राज्य को ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर दिया जाए।  इसका कोई प्रभावशाली स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। सत्तावादी सरकार तथा कानून 4 दिसम्बर 2021 को 14 नागरिकों के मारे जाने (गलत पहचान का मामला, जिसके लिए सेना ने माफी मांगी है) के बाद, मणिपुर, नागालैंड तथा मेघालय के मुख्यमंत्रियों ने कानून वापस लेने की मांग की है।

मणिपुर की याचिका ऊट-पटांग है : यह राज्य सरकार ही थी जिसने कानून को लागू किया था तथा कोई भी चीज मुख्यमंत्री को अधिसूचना को रद्द करने से नहीं रोकती। तथ्य यह है कि सरकारें 2014 के बाद से अधिक सत्तावादी बन गई है। एक अपरिहार्य परिणाम के तौर पर पुलिस तथा सशस्त्र बल, जब आंतरिक सुरक्षा के लिए तैनात किए जाते हैं तो अधिक तानाशाहीपूर्ण सत्तावादी बन जाते हैं। अफस्पा, जिसका उद्देश्य बचाव करना था, एक हथियार बन गया है। सशस्त्र बलों के भीतर ही अफस्पा वापस लेने के लिए आवाजें हैं मगर अफसोस की बात है कि वे चुप हैं। 

गृहमंत्री के तौर पर मैंने अफस्पा की वापसी का समर्थन किया था। विकल्प के तौर पर मैंने कानून में संशोधन के लिए तर्क दिया था। मैं असफल रहा तथा इस बाबत मैंने 2015 के एक कॉलम में कहानी लिखी थी। आज हमारे पास एक सत्तावादी सरकार, एक सत्तावादी प्रधानमंत्री तथा एक सत्तावादी गृहमंत्री है। इसकी वापसी और यहां तक कि संशोधनों के अवसर शून्य हैं। एकमात्र सहारा संवैधानिक अदालतें हैं।-पी. चिदम्बरम


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