एक सैनिक का सम्मान किसी नेता से कम नहीं होना चाहिए

punjabkesari.in Saturday, Dec 03, 2022 - 05:00 AM (IST)

पिछले सप्ताह मुझे गोरखा सैनिकों की शिखर संस्था अखिल भारतीय गोरखा पूर्वसैनिक कल्याण संगठन के संरक्षक के नाते देश भर से आए गोरखा पूर्व सैनिकों से मिलने का अवसर मिला। वे आयु में अधिक होते हुए भी उत्साह और वीरता में किसी से कम नहीं। उनमें राष्ट्रभक्ति और धर्मनिष्ठा का अद्भुत ज्वार होता है। गोरखा शब्द ही गो-रक्षा से आया है। नेपाल में उनका मूल स्थान है और हिन्दू धर्म के प्रति अगाध निष्ठा। वे गुरु गोरखनाथ जी के अनुयायी हैं जिनकी गद्दी वर्तमान में गोरखपुर है जहां के यशस्वी प्रमुख योगी आदित्य नाथ जी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।गोरखाओं ने देश रक्षा हेतु अद्भुत बलिदान दिए हैं।

आजाद हिन्द फौज के सेनापति नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अनन्य सहयोगी थे मेजर दुर्गा मल्ल। वे देहरादून के रहने वाले थे और नेताजी के आह्वान पर उनके साथ शामिल हो गए थे। इम्फाल में हुए भयंकर युद्ध में अंग्रेजों के 72,000 सैनिक मारे गए थे। उसी युद्ध में मेजर दुर्गा मल्ल पकड़े गए और गिरफ्तार कर उनको नई दिल्ली लाया गया जहां लाल किले में मुकद्दमा चलाकर उनको फांसी दी गई। भारतीय संसद में उनका बुत प्रतिष्ठित है। इसी प्रकार बैरिस्टर अड़ी बहादुर गुरंग संविधान सभा के सदस्य थे और उन्हीं की पहल तथा नेतृत्व में गोरखा पूर्व सैनिक कल्याण संगठन का गठन हुआ। 

आजादी के बाद भी गोरखा वीरता अप्रतिम रही है। चीन के साथ युद्ध में मेजर धन बहादुर थापा को वीरता के शिखर प्रदर्शन हेतु परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। इस संगठन द्वारा आज हजारों गोरखा परिवारों के सदस्यों को शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु वार्षिक सहायता दी जाती है। खेद है कि यह राशि अत्यंत नगण्य अर्थात केवल बारह लाख रुपए वार्षिक है जो कम से कम एक करोड़ रुपए वार्षिक होनी चाहिए।

गोरखा सैनिकों की यह भी मांग है कि उनको अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए जिसके लिए केंद्र सरकार उनको आश्वासन देती आई है। 12 अक्तूबर 2021 को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ दार्जिलिंग के भाजपा सांसद राजू बिष्ट के नेतृत्व में एक घंटे तक चर्चा में दार्जिलिंग, तराई, दूआर के अनेक नेता शामिल हुए और विभिन्न विषयों के अलावा गोरखाओं को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर भी विचार हुआ गोरखाओं को अपने सम्मान और अधिकारों की चिंता है। उनके साथ बातचीत में यह भी विषय निकला कि आजकल सेना और सैनिकों का अपमान नया फैशन हो गया है। सेना में हमारे नौजवान सब कुछ दांव पर लगाकर शामिल होते हैं। 

देश की रक्षा के लिए जान न्यौछावर करते हैं। 20-21 साल की उम्र में जब सपने उमंग भर रहे होते हैं तब वे सियाचिन के ग्लेशियर से लेकर जैसलमेर के रेगिस्तानों और अरुणाचल प्रदेश के दुर्गम सीमांत क्षेत्र में कत्र्तव्य पालन करते हैं और दुश्मनों का सामना करते हुए शहीद भी हो जाते हैं। उनके परिवारों पर क्या गुजरती है इसका क्या सामान्य भारतीयों को अहसास होता है? 

भारतीय जो धन और वैभव में डूबे होते हैं सैनिकों के बलिदान की कीमत भी क्या महसूस कर सकते हैं? लेकिन ऐसे ही ऐश्वर्यशाली भारतीय सेना और सैनिकों का जब मखौल उड़ाते हैं तो उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती। जबकि किसी फटेहाल राजनेता के बारे में भी कोई टिप्पणी कर दे तो उसकी फौरन गिरफ्तारी हो जाती है अंतर्देशीय सीमाएं लांघकर पुलिस ऐसे सोशल मीडिया के तिकड़मबाजों को जेल में डाल देती है। क्या सैनिक और सेना का सम्मान किसी नेता के सम्मान से कम आंका जाना चाहिए? 

एक तीसरे दर्जे की अभिनेत्री ऋचा चड्ढा द्वारा सेना का अपमान करने पर उसके साथ अनेक सैकुलर लोग खड़े हुए, जिन लोगों ने कभी हिन्दुओं के मानवाधिकारों के लिए आवाज नहीं उठाई, जिन्होंने कभी कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा मारे जा रहे मजदूरों के बारे में नहीं बोला, जिन्होंने जीवन में कभी किसी आतंकवादी संगठन का विरोध नहीं किया, जिनकी लेखनी ने दलित महिलाओं पर इस्लामवादियों के अत्याचारों पर एक शब्द नहीं लिखा वे अत्यंत उत्साहपूर्वक भारतीय सेना के अपमान को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल हिस्सा मानते हुए खुल कर सेना विरोधी आवाजों को समर्थन देने की हिमाकत करने लगते हैं। ऐसी आवाजों पर लगाम क्यों नहीं लगाई जाती ? 

दुर्दांत आफताब ने दलित परिवार से आई श्रद्धा के 35 टुकड़े कर दिए। किसी भी सैकुलर पत्रकार ने इसके बारे में एक शब्द भी भत्र्सना का नहीं बोला लेकिन सेना के अपमान पर उनको बोलना जरूरी लगता है। यह वही तत्व हैं जो कश्मीर से आतंकवाद के सफाए पर, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर, तीन तलाक खत्म करने पर, खालिस्तान विरोधी मुहिम इत्यादि बातों पर मोदी सरकार का विरोध करते हैं। इनका पाकिस्तान की मीडिया पर बहुत स्वागत होता है। 

मैंने राज्यसभा में एक विधेयक का प्रस्ताव किया था जिसका नाम था ‘सशस्त्र  सेना सम्मान संरक्षण अधिनियम’। जिस प्रकार भारतीय न्यायाधीशों के सम्मान की रक्षा हेतु 12 दिसम्बर 1971 को न्यायालय अपमान अधिनियम (कंटैम्प्ट आफ कोर्ट्स एक्ट 1971) बनाया गया उसी प्रकार कंटैम्पट आफ आम्र्ड फोर्सेज एक्ट बनाए जाने की जरूरत है। राज्य सभा में इसका काफी स्वागत भी हुआ लेकिन संभवत: सरकार को लगा इस पर अधिक विचार की आवश्यकता है। अब समय आ गया है कि सैनिकों के सम्मान की रक्षा हेतु कठोर कानून बनाकर प्रतिदिन होने वाले ऋचा चड्डा जैसे घटनाक्रमों पर रोक लगाई जाए।-तरुण विजय
 


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