‘कृषि कर्ज के लिए चाहिए अलग किसान बैंक’

punjabkesari.in Wednesday, Mar 03, 2021 - 02:20 AM (IST)

वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बैंकिंग क्षेत्र के लिए दो विशिष्ट सुधारों की घोषणा की है। कुछ एन.पी.ए. को घरेलू वित्तीय संस्थानों (डी.एफ.आई.) में वापस लाने के लिए नए ए.आर.सी. और ए.एम.सी. जैसे उपाय ऋण वृद्धि और इसके प्रवाह में सुधार के लिए लक्षित हैं। परियोजना वित्त को पुनर्जीवित करने के लिए डी.एफ.आई. अधिक महत्वपूर्ण रूप से लक्षित हैं। उम्मीद है,अतीत के सबक बैंकिंग क्षेत्र के सुधार में लागू होंगे। इसके अलावा, कुछ ऐसे सैक्टर हैं जिन्हें सीधे ऋण की जरूरत है। इनमें एक है कस्टोडियन बैंकिंग और दूसरा कृषि क्षेत्र। 

ऋण वितरण में जोखिम है इसलिए इसकी उपलब्धता और मार्जिन में सुधार के लिए विशेषज्ञता की जरूरत है। सरकारों ने कई दशकों तक ऋण को प्रॉयरिटी सैक्टर में परिवर्तित करने की नीति बनाई पर यह कारगर सिद्ध नहीं हो पाई। विडंबना इस बात की है कि तीन दशकों से प्रॉयरिटी सैक्टर लैंडिंग में बैंकों के उदासीन प्रदर्शन के बावजूद किसी भी बैंकों को इन क्षेत्रों में ऋण का लक्ष्य पूरा करने में विफल रहने पर दंडित नहीं किया गया। इसके बजाय उन्हें राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा प्रबंधित रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर विकास फंड (आर.आई.डी.एफ.) में निवेश के लिए कहा जाता है। हकीकत यह है कि कई आकांक्षी जिलों में बैंकों ने कई वर्षों से प्रॉयरिटी सैक्टर लैंडिंग नहीं की है। 

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण जारी करने के लिए दबाव नहीं बनाया गया। इसके लिए ऋण नीति को और अधिक आकर्षक बनाए जाने की जरूरत है और इसका एकमात्र तरीका है कृषि विशेष भारतीय किसान बैंक खोलने की अनुमित दी जाए। हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास पर्याप्त जमा राशियां हैं और भौगोलिक दृष्टि से इनका विस्तार भी बहुत बड़ा है पर कृषि क्षेत्र,छोटे उद्यमियों और यहां तक की अनौपचारिक क्षेत्र को ऋण जोखिम के मूल्यांकन के लिए ये बैंक विकसित नहीं हो पाए हैं। बैंकिंग क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और ऋण जोखिम के मूल्यांकन के अभाव में बैंकों की ऋण के प्रति मानसिकता का ही नतीजा है कि कार्पोरेट क्षेत्र में बैंकों का एन.पी.ए.(नॉन परफार्मिंग एसैट्स) बहुत बढ़ा है। 

इसकी वजह से ज्यादातर बैंकों में कार्पोरेट एन.पी.ए. का करीब एक जैसा रुझान है। मजे की बात यह है कि ऋण जोखिम की जांच के लिए बैंक एक जैसी प्रणाली का अनुसरण कर रहे हैं या हर कोई लीड बैंक मॉडल की नकल कर रहा है। ऋण जोखिम के मूल्यांकन की प्रणाली सही नहीं है जिसकी वजह से कुछ क्षेत्रों में जोखिम पहचानने में विशेषज्ञता की कमी प्रतीत होती है। 

कृषि क्षेत्र में भी बहुत एन.पी.ए. हैं जिससे इस क्षेत्र में ऋण की वृद्धि दर खराब है। कृषि बैंकिंग के लिए नोडल एजैंसी नाबार्ड का दावा है कि वित्त वर्ष 2019-20 में बैंकों ने कृषि ऋण के 13.50 लाख करोड़ रुपए के सरकारी लक्ष्य को पार करते हुए 13.73 लाख करोड़ रुपए के ऋण जारी किए।

हालांकि कृषि ऋण की ये प्रबंधित उपलब्धियां निरर्थक हैं क्योंकि यह सही तस्वीर नहीं दर्शाती। बड़ा कारण यही है कि कृषि क्षेत्र को बढ़ते ऋणों का कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन या किसान की आय से कोई संबंध नहीं है। आर.आई.डी.एफ. के लिए निर्देशित फंड किसानों तक नहीं पहुंचता,वह राज्य सरकारों को बांट दिया जाता है। सवाल उठता है कि क्या कृषि ऋण का उपयोग इच्छित उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है? यदि नहीं तो क्या रियायती ब्याज दरों की वजह से कृषि ऋण के दुरुपयोग में मध्यस्थता बड़ी है? इस समस्या का संस्थागत समाधान क्या है? 

पिछले चार दशकों में कृषि क्षेत्र के ऋण में 1000 गुणा से अधिक की वृद्धि हुई है। हालांकि कृषि जी.डी.पी. कृषि क्षेत्र में ऋण की वृद्धि का वास्तविक मापक होना चाहिए पर इस हिसाब से कृषि क्षेत्र की वृद्धि नहीं हुई है। उदाहरण के लिए कृषि क्षेत्र में सुधार पूर्व अवधि (1972 से 1990)के दौरान कृषि क्षेत्र में औसतन वाॢषक विकास दर 4.2 प्रतिशत रही जबकि 1991 से लेकर 2000 तक यह गिर कर औसतन प्रति वर्ष 3.2 हो गई है। लेकिन 2001 से 2008 के बीच 12 फीसदी की जबरदस्त वृद्धि देखी गई जबकि 2009 और वित्त वर्ष 2018 के दौरान यह वापस गिरकर 3.6 प्रतिशत हो गई। 

वित्त वर्ष 2001 और 2008 के बीच बड़े पैमाने पर कृषि क्षेत्र में विकास के लिए किसान क्रैडिट कार्ड (के.सी.सी.)की भूमिका बताई जा रही है। 1998 में शुरू किए गए केसीसी के जरिए रियायती ब्याज दरों पर फसलों के अल्पकालिक ऋण प्रोत्साहित किए गए थे। 2008 की आॢथक सुस्ती के दौरान कृषि ऋण माफी स्कीम के बाद से कृषि ऋणों में रुकावट आई। बैंक आशंकित है कि किसानों की ऋण माफी ने ऋण संस्कृति में नैतिक खतरा पैदा कर दिया है। रियायती ब्याज दरों पर कृषि ऋण के लिए 2006 में शुरू की गई ब्याज सबवैंशन स्कीम के तहत 7 फीसदी ब्याज दर पर किसानों को अल्पकालिक फसल ऋण प्रदान किए जा रहे हैं जबकि तय समय पर चुकाने वाले किसानों को यह 4 प्रतिशत ब्याज दर पर दिए जा रहे हैं। 

यदि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक प्राथमिकता क्षेत्र के ऋणों के लिए जारी निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं, यदि ज्यादा फंड आर.आई.डी.एफ. व नाबार्ड को जा रहे हैं और किसान महंगी ब्याज दरों पर ऋण उठाने को मजबूर हैं तो समय आ गया है कि आर.बी.आई. कृषि क्षेत्र के लिए अलग बैंक के लाइसैंस पर विचार करे। ग्रामीण क्षेत्र की इस सेवा के लिए बहुत से ऐसे लोग सामने आएंगे जो फसलों के विविधीकरण के लिए बहुत जरूरी सुधारों को कारगर करने को ऋणों का विस्तार करेंगे।-यतीश राजावत 
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News