‘2020’ का भारत 1968 के अमरीका जैसा

punjabkesari.in Sunday, Jan 12, 2020 - 01:38 AM (IST)

2020 का भारत 1968 के अमरीका जैसा दिखाई दे रहा है। फ्रांस भी 1968 में ऐसे हालातों का सामना कर रहा था। 1968 के अमरीका का स्मरण मैं इसलिए भी कर रहा हूं क्योंकि वहां पर साधारण राजनीतिक गतिविधियां फेल हो चुकी थीं तथा मामला विश्वविद्यालयों व कालेजों के छात्रों के हाथों में आ गया था। 1968 में मुख्य मुद्दा वियतनाम युद्ध था। अमरीका दक्षिण वियतनाम में युद्ध लड़ रहा था। जाहिर तौर पर वह उत्तरी वियतनाम पर नियंत्रण कर चुके माक्र्सवादियों के प्रभाव को पीछे धकेलना और लोकतंत्र का बचाव करना चाहता था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वहां पर उदारवादी लोकतंत्र की रक्षा करने तथा उसके बचाव के सिद्धांत का समर्थन जुटाया गया था। इस युद्ध की प्रत्यक्ष रूप से खींची गई रेखा को यूरोप में तैयार किया गया था। वहां पर स्व:घोषित लोकतंत्र देश तथा स्व:घोषित माक्र्सवादी देश थे। विंस्टन चॢचल ने बांटने वाली इस रेखा को लोहे का पर्दा करार दिया। 

अमरीका ने रूपरेखा तैयार कर ली थी। युवा लोग सुरक्षा बलों में अपनी सेवाएं देने के लिए समॢपत हो चुके थे। वियतनाम युद्ध के शुरूआती दिनों के दौरान कई स्वयंसेवियों ने अपनी सेवाएं दीं। जैसे ही युद्ध भड़का तथा निरंतर सरकारों का झूठ बेनकाब हुआ तो समर्थन संशयवाद में; संशयवाद संदेह में तथा संदेह विपक्ष में तबदील हो गया। यह युवा वर्ग था विशेष तौर पर छात्र तथा रूपरेखा तैयार करने वाले जिन्होंने प्रदर्शन की आवाज को बुलंद किया। उन्होंने अमरीकी सरकार से पूछा कि इतनी दूर जाकर आप वियतनाम से युद्ध क्यों लड़ रहे हैं? सैंकड़ों की गिनती में युवा अमरीकी क्यों मर रहे हैं? राजनीतिक सिस्टम इन सवालों के तसल्लीबख्श जवाब देने में असफल हुआ। 

छात्रों के विरोध की इस हवा की दिशा को पढऩे में अमरीकी कांग्रेस के चुने हुए प्रतिनिधि नाकामयाब रहे। जब इस बात को उन्होंने समझा तब एक के बाद एक अमरीकी प्रशासन ने अपनी एडिय़ां उठाते व चीखते हुए युद्ध का बचाव किया। चाहे वह कैनेडी हो, जानसन हो या निक्सन हो, सबके शब्द एक जैसे थे। जीत मात्र एक युद्ध की दूरी पर खड़ी थी। आश्चर्यजनक बात यह थी कि यह निक्सन ही थे, जो एक बाज की तरह थे और माक्र्सवादी विरोधी थे। उन्होंने यह भांपा कि अमरीका एक नाउम्मीद तथा न जीतने वाला युद्ध लड़ रहा है। उन्होंने युद्ध से पीछे हटना चाहा। 

कुछ बहुत गलत हुआ
भारतीय विश्वविद्यालयों तथा कालेजों के कैम्पस में हमने आक्रोश की ज्वाला देखी, जोकि 1968 की घटनाओं से मेल खाती है। छात्रों तथा युवाओं ने यह भांप लिया कि देश जिस तरह से संचालित किया जा रहा है उसमें कुछ न कुछ बहुत गलत हुआ है। वहां पर उपकुलपतियों की नियुक्ति जैसी कई चिंगारियां थीं। गवर्नरों तथा चांसलरों की अनुचित दखलअंदाजी देखी गई। इसके साथ-साथ टीचरों की त्रुटिपूर्ण नियुक्ति, परीक्षा के आयोजन में कुप्रबंधन, छात्र संघ की गतिविधियों पर पाबंदी, फीस वृद्धि इत्यादि भी देखी गई। कुछ विश्वविद्यालय प्रशासक राजनीति से प्रेरित थे, जिन्होंने छात्रों के एक राजनीतिक समूह का समर्थन किया। इससे संघर्ष बढ़ गया। 

यहां पर विशेष रूप से जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी का प्रशासन है जिसने खुले तौर पर ए.बी.वी.पी. को प्रोत्साहित किया, जोकि भाजपा का छात्र विंग है। प्रदर्शन की आवाज पर टुकड़े-टुकड़े गैंग का लेबल लगा दिया गया। छात्र नेताओं के खिलाफ राजद्रोह का मामला लगाया गया। यूनिवॢसटियों में साधारण स्थिति भयावह थी। देश में साधारण स्थिति भी दमनकारी थी। दिन-ब-दिन दुष्कर्म, मॉब लिंचिंग, गाली-गलौच तथा मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां करने की भयानक कहानियां देश को झकझोर रही हैं। भविष्य के लिए भयभीत होने वाले युवा तथा महिलाएं वृद्धि, विकास, रोजगार को लेकर चिंतित हैं। युवा वर्ग नौकरियां पाने के लिए चिंतित हैं। यह सब कुछ देखने वाला छात्र सब पहचानता है कि प्रशासन कई तरीकों से अपनी हेंकड़ी दिखा रहा है। मतभेद की सहिष्णुता, दूसरे धर्मों की निंदा, कानून व्यवस्था को लागू करने का सख्ती का नियम, सैंसरशिप, अन्य पाबंदियां (इंटरनैट को बंद करना), बिना आरोप के लम्बी हिरासत में रखना, अंतरजातीय अथवा अंतर धर्म मैरिज की अनुमति न देना इत्यादि चीजें देश में चरम सीमा पर हैं। 

वचनबद्धता से इंकार
राजनीतिक स्तर पर बहुसंख्यकवाद हेंकड़ी उस समय व्याप्त थी, जब सरकार संसद में विपक्ष से तकरार कर विवादास्पद विधेयक के माध्यम से आगे बढ़ रही थी। यहां पर मैं एक उदाहरण पेश करता हूं। भारतीय संविधान का आर्टीकल 5 से 11 नागरिकता के साथ डील करता है। इन आर्टीकलों को अपनाने से पहले संवैधानिक असैम्बली ने इन प्रावधानों पर 3 माह तक बहस की। इसके विपरीत नागरिकता संशोधन बिल 2019 को मंत्रिमंडल ने 8 दिसम्बर 2019 को अपनी स्वीकृति दे दी तथा यह दोनों सदनों में पास कर दिया गया और 11 दिसम्बर को कानून के तौर पर नोटीफाई कर दिया गया। यह सब 72 घंटों के भीतर ही हो गया। 

राजनीतिक दलों से ज्यादा जिन्होंने ज्यादा झटका दिया वह थे छात्र तथा युवा वर्ग, जिन्होंने देश तथा संविधान के लिए उत्पन्न खतरे से सबको नींद से जगाया। उन्होंने बहुसंख्यकवाद हेंकड़ी, देश को बांटने तथा भारतीयों से लड़ाने की जुगत को समझा। अधिकारों, सहूलियतों तथा अवसरों के मामले में कुछ भारतीयों को कम मिला। ऐसी विपत्तिपूर्ण स्थिति ने भारत को 70 वर्ष पीछे धकेल दिया तथा स्वतंत्रता के बाद देश द्वारा किए गए बेहतरीन कामों को पटल से मिटा दिया। नागरिकता संशोधन कानून ने युवा वर्ग में उदासीनता तथा उनके साथ भेदभाव को भेदा है। वृद्ध वर्ग भी शर्म से डूबा है। हजारों की गिनती में युवक तथा युवतियां गलियों में प्रदर्शन करने के लिए धकेले गए हैं। वे कैंडल लाइट मार्च निकालने को बाध्य किए गए हैं। वे राष्ट्रीय ध्वज को फहराते हुए तथा संविधान की भूमिका को पढ़ते नजर आ रहे हैं। जैसा कि निश्चित था कि सत्ताधारी श्रेणी आंखें मूंद कर अपनी प्रतिक्रिया देती रही मगर प्रशासन बेचैन नजर आया। प्रधानमंत्री ने अपने गृह मंत्री को यह कहने केलिए अनुमति दे दी कि हम सी.ए.ए. से एक इंच भी पीछेनहीं हटेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि देश में अस्थिर तथाअचल बल है, नववर्ष की शुरूआत गम के साथ शुरू हुई।-पी. चिदम्बरम


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