‘इधर अली’ ‘उधर अली’ का क्रम 80 वर्ष बाद भी जारी

punjabkesari.in Saturday, Sep 05, 2020 - 02:07 AM (IST)

अविभाजित भारत में सर सिकंदर हयात खान ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद पंजाब की राजनीति में प्रवेश किया। उन्होंने 1920 में सर फजली हुसैन, सर छोटू राम व कुछ अन्य लोगों के साथ मिल कर ‘यूनियनिस्ट पार्टी (पंजाब)’ बनाई थी जिसने अविभाजित पंजाब में लोकप्रियता प्राप्त कर ली। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत वह पंजाब के गवर्नर और रिजर्व बैंक के गवर्नर भी नियुक्त किए गए लेकिन 1936 में सर फजली हुसैन की मौत के बाद उन्होंने उसी वर्ष हुए चुनावों में ‘यूनियनिस्ट पार्टी’ का नेतृत्व संभाल लिया। 

चुनावों में मामूली बहुमत से जीत कर ‘कांग्रेस’ और ‘सिख अकाली दल’ के साथ मिल कर सिकंदर हयात खान ने संयुक्त सरकार बनाई और 1937 से 1942 तक वह (अविभाजित) पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। साम्प्रदायिक दंगों के घोर विरोधी सिकंदर हयात खान एक ऐसा पंजाब चाहते थे जहां सभी धर्मों के लोग भारतीय संविधान के अंतर्गत सुखपूर्वक रहें। हालांकि बाद में उनके पुत्र शौकत हयात खान ने अपने पिता से भिन्न स्टैंड अपनाते हुए पाकिस्तान में मुस्लिम लीग की विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई परंतु सिकंदर हयात खान विभाजन के घोर विरोधी थे और वह जानते थे कि बंटवारा होने की स्थिति में देश में भारी खून-खराबा होगा। 

1942 में 50 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु के बाद लाहौर में उनकी शव यात्रा में हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए थे। मैं भी उस को देखने गया था और तब मैं 10 वर्ष का ही था। उन्हीं के मंत्रिमंडल में बार-बार पाला बदलने के लिए मशहूर ‘...अली’ नामक एक विधायक हुआ करते थे जिनके बार-बार वफादारियां बदलने के चलते लोगों ने उनका नाम ‘इधर अली-उधर अली’ रख दिया था। अब जबकि अक्तूबर-नवम्बर 2020 में बिहार में चुनाव होने वाले हैं, वहां चल रहे राजनीतिक जोड़-तोड़ से स्पष्टï है कि जिस तरह 80 वर्ष पहले राजनीतिक वफादारियां बदलने का खेल खेला जाता था, वह आज भी जारी है। 

नीतीश कुमार की जद ‘यू’, भाजपा, चिराग पासवान की ‘लोजपा’ व निर्दलीय विधायकों पर आधारित नीतीश की गठबंधन सरकार में जद ‘यू’ व  ‘लोजपा’ में लगातार कटुता और विरोधी खेमे से निकटता बढ़ रही है। इसी संदर्भ में बिहार के भावी मुख्यमंत्री के रूप में दिख रहे ‘लोजपा’ के प्रमुख चिराग पासवान ने अपने पार्टी वर्करों को कोरोना से निपटने में नीतीश कुमार की सरकार की त्रुटियां उजागर करने के लिए कहा है। एक ओर नीतीश की जद (यू) और चिराग पासवान की ‘लोजपा’ में दूरी बढऩे के संकेत दिखाई दे रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ समय पहले तक नीतीश से ‘नाराज’ चले आ रहे जीतन राम मांझी ने लालू यादव की ‘राजद’ से नाता तोड़ कर ‘राजग’ से नजदीकी बढ़ा ली है। 

जीतन राम मांझी अपने राजनीतिक करियर की शुरूआत से ही बार-बार पाला बदलने का खेल खेलते चले आ रहे हैं। वह 1980 से 90 तक कांग्रेस में रहे और 1990 में चुनाव हारने के तुरंत बाद पलटी मार कर जनता दल में चले गए और 1996 में जनता दल में फूट पडऩे पर जब लालू यादव ने अपना ‘राष्ट्रीय जनता दल’ (राजद) बनाया तो जीतन राम मांझी उसमें चले गए और 1996 से 2005 तक राजद सरकार में मंत्री रहे। 2005 के चुनावों में लालूके ‘राजद’ की हार के बाद मांझी ने इससे नाता तोड़ कर नीतीश कुमार के जद (यू) से नाता जोड़ लिया लेकिन अगले ही दिन ‘राजद’ शासनकाल के एक जाली डिग्री स्कैंडल में उनकी संलिप्तता सामने आ जाने पर उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा परंतु 2008 में सब आरोपों से मुक्त होने के बाद वह पुन: नीतीश सरकार में शामिल हो गए। 

2015 में बिहार के राजनीतिक संकट के दौरान उन्हें नीतीश ने जद (यू) से निकाल दिया और मई, 2015 में उन्होंने ‘हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा (एस)’ का गठन करके लालू यादव के राजद से नाता जोड़ लिया था। बहरहाल अब एक बार फिर जीतन राम मांझीका लालू यादव के ‘राजद’ से मोह भंग हो गया है और उन्होंने 3 सितम्बर को भाजपा नीत ‘राजग’ गठबंधन में शामिल होने की घोषणा कर दी है। यही नहीं नीतीश कुमार के एक और निकट साथी शरद यादव जिन्होंने वैचारिक मतभेदों के कारण 14 अगस्त, 2017 को जद (यू) से नाता तोड़ कर ‘लोकतांत्रिक जनता दल’ (एल.जे.डी.) का गठन कर लिया था, उनकी भी घर वापसी की संभावना अब व्यक्त की जा रही है। 

इससे पहले भी विभिन्न दलों से अनेक नेता पलटी मार कर दूसरे दलों में जाने-आने का खेल खेलते रहे हैं। नवम्बर, 2019 में जब महाराष्ट्र में शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा की गठबंधन सरकार बनना लगभग तय था अजीत पवार (राकांपा) अचानक भाजपा से जा मिले और पुन: भाजपा की सरकार बन गई परंतु इस पर मचे हो-हल्ले व मान-मनौवल के बाद अजीत पवार की पुन: घर वापसी से शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा की सरकार बन सकी। 

अभी हाल ही में राजस्थान में कांग्रेस से पलटी मार कर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा का दामन थाम लिया और राज्यसभा में पहुंच गए और इस तरह एक दल से दूसरे दल में पलटी मारने का खेल लगातार जारी है।फर्क बस इतना है कि पहले ‘इधर अली-उधर अली’ का जमाना था और अब ‘आया राम गया राम’ का युग है। वास्तव में देशवासियों को ऐसे नेताओं से बचना चाहिए जिनका उद्देश्य ‘जन सेवा’ नहीं बल्कि ‘जेब सेवा’ होकर रह गया है।—विजय कुमार 


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