कांग्रेस को बचाना है तो समविचारक दलों से गठबंधन जरूरी

punjabkesari.in Thursday, Feb 13, 2020 - 12:28 AM (IST)

देश के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने और अनेक महान नेता देने वाली कांग्रेस पार्टी आज अर्श से फर्श पर आ चुकी है और केंद्र सहित देश के अधिकांश राज्यों में सत्ता से दूर है। कांग्रेस के क्षरण का सिलसिला 11 फरवरी को घोषित दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजों के बाद अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया जब इन चुनावों में इसके उम्मीदवार एक भी सीट नहीं जीत पाए और 65 में से 63 उम्मीदवारों की तो जमानत ही जब्त हो गई। 

स्वतंत्रता के बाद लगभग दो दशक तक देश पर एकछत्र शासन करने वाली भारत की ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ कांग्रेस के वर्चस्व को पहली चुनौती 1967 में मिली थी जब अनेक हिन्दी भाषी राज्यों में इसे पराजय का मुंह देखना पड़ा था। उसी दौर में कांग्रेस में टूटन का सिलसिला शुरू हुआ जब इसमें फूट से ‘संगठन कांग्रेस’ का जन्म हुआ तथा उसके बाद से कांग्रेस के क्षरण का सिलसिला किसी न किसी रूप में जारी है। 

2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी लहर में कांग्रेस को पहली बार इतनी भी सीटें नहीं मिलीं कि इसे विपक्ष के नेता का दर्जा मिल सके। तब से अब तक पार्टी अपने अनेक दिग्गज नेताओं की पराजय और दिल्ली चुनावों में दूसरी बार शून्य पर सिमटने के बाद शर्मनाक स्थिति में पहुंच चुकी है और इसका वोट प्रतिशत जो 1998 के दिल्ली विधानसभा के चुनावों में 48 था, इन चुनावों में 4.3 से भी नीचे चला गया है। 

प्रेक्षकों के अनुसार जिस प्रकार भाजपा नेतृत्व कड़ी मेहनत करके पिछले चुनावों में जीती मात्र 3 सीटों के मुकाबले इन चुनावों में 8 सीटें जीतने में सफल हो गया, उसी प्रकार यदि कांग्रेस दिल्ली में ‘आप’ के साथ चुनावी गठबंधन कर लेती तो इसकी स्थिति भी कुछ बेहतर नज़र आती और वह मौजूदा लज्जाजनक पराजय से भी बच जाती तथा उसे ‘आप’ का साथ देने का श्रेय भी मिल जाता। उल्लेखनीय है कि पंजाब के 2017 के चुनावों में ‘आप’ की हवा काफी ज्यादा थी और लगता था कि उसकी सरकार बन जाएगी जिसे देखते हुए शिअद ने कथित रूप से कैप्टन अमरेंद्र सिंह से ‘गुप्त’ समझौता करके कांग्रेस पार्टी को वोटें ट्रांसफर कर दीं और अकाली दल केवल 17 सीटों पर सिमट कर रह गया था। 

वास्तव में गत वर्ष मार्च में कांग्रेस के ‘आप’ से गठबंधन की दिशा में चर्चा चली भी थी परंतु 15 वर्ष तक दिल्ली पर शासन करने वाली पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के विरोध के कारण राहुल गांधी ने ऐसा नहीं किया। यह गठबंधन सरकारों का युग है। लिहाजा पार्टी को जिंदा रखने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि जिस प्रकार इसने महाराष्ट्र और झारखंड में शिवसेना, राकांपा और झामुमो के साथ मिल कर सरकारें बनाई हैं उसी प्रकार जहां इसके नेतृत्व को पार्टी की स्थिति कमजोर लगे वहां दूसरे दलों के साथ गठबंधन करने के रास्ते तलाश करके अपनी स्थिति मजबूत करने और सत्ता में भागीदारी के प्रयास करने होंगे। 

जिस प्रकार भाजपा अपने वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा और उन्हें दरकिनार करके आज आलोचना की पात्र बनने के साथ-साथ पराजयें झेल रही हैं, कांग्रेस नेतृत्व को ऐसा करने की बजाय अपने वरिष्ठ और उपेक्षित नेताओं को साथ लेकर चलने की आवश्यकता है। जहां तक पार्टी में झगड़ों और विवादों का संबंध है ये तो सभी पाॢटयों में हैं परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि पार्टी के नाराज अथवा वरिष्ठ नेताओं की ओर से मुंह मोड़ लिया जाए बल्कि उनकी नाराजगी दूर कर उन्हें अपने साथ जोड़े रखना चाहिए ताकि पार्टी को उनके अनुभवों का लाभ मिल सके। 

कांग्रेस नेतृत्व के लिए यह भी जरूरी है कि इसके नेता किसी भी मुद्दे पर  अनाप-शनाप बयानबाजी करने से संकोच करें। बेशक वे गलत को गलत कहें और यदि सरकार के किसी काम को पसंद न करते हों तो भी उन्हें भाजपा नेताओं की तरह विरोधियों पर निजी आक्षेप करने और आपत्तिजनक बयानबाजी से बचना चाहिए जिस प्रकार अरविंद केजरीवाल ने इन चुनावों में किसी भी नेता के विरुद्ध विवादास्पद और आपत्तिजनक बयान नहीं दिया। कांग्रेस नेतृत्व को समझ लेना चाहिए कि भाजपा देश से जाने वाली नहीं है लिहाजा उसका मुकाबला करने के लिए उन्हें कांग्रेस को मजबूत करने की आवश्यकता है जो इसके नेताओं द्वारा अपनी वर्तमान स्थिति बारे गंभीरतापूर्वक आत्ममंथन और ङ्क्षचतन तथा समविचारक दलों के साथ चुनावी गठबंधन करने से ही संभव हो सकता है।—विजय कुमार 


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