कितना आसान है अमरीका का कोरोना वैक्सीन पटैंट मेें छूट का वायदा

punjabkesari.in Monday, May 10, 2021 - 03:43 AM (IST)

भारत कुछ समय से मांग कर रहा था कि कोरोना से सुरक्षा के लिए दुनिया भर में तैयार की गईं वैक्सीन के पेटैंट में छूट दी जाए ताकि फाइजर या एस्ट्राजैनेका जैसी उन्हें तैयार करने वाली कंपनियों के अलावा अन्य कंपनियां भी उन्हें बना सकें। ऐसा करने का मकसद तेजी से उत्पादन बढ़ा कर जल्द से जल्द बड़ी संख्या में लोगों को वैक्सीन देना है। 

इस संदर्भ में हाल ही में अच्छी खबर आई जब अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भारत तथा दक्षिण अफ्रीका की ओर से 6 महीने पहले रखे इस संबंध में एक प्रस्ताव पर अपनी सहमति जताई है। इस फैसले पर हैल्थ एक्सपर्ट्स की ओर से बाइडेन की काफी प्रशंसा भी हो रही है। हालांकि, इस संबंध में कई प्रश्न हमारे सामने आ खड़े होते हैं। जैसे कि क्या अन्य अमीर देश भी इस बात पर सहमत होंगे? इस योजना को कितनी जल्दी अमलीजामा पहनाया जा सकता है और क्या वाकई में ऐसा हो भी सकेगा? 

एक संवेदनशील मुद्दा यह भी है कि इस योजना के सफल होने तक दुनिया भर में कितने लोगों की जान जाएगी। यह बात विचारणीय है कि पेटैंट से छूट देने के मुद्दे पर विचार चर्चा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तहत करनी होगी जिसमें 60 देश हैं। इस सब में ही 3 से लेकर 6 महीने तक लग सकते हैं। साथ ही पेटैंट हटाने से कुछ नहीं होगा क्योंकि जिन क पनियों ने वैक्सीन का आविष्कार किया है उन्हें इनके बारे में महत्वपूर्ण जानकारी तथा तकनीक को भी उन देशों या क पनियों को ट्रांसफर करना होगा जिन्हें उनकी दवाई तैयार करने की छूट मिलेगी। इसमें भी काफी देर लगेगी और यह सब कुछ होने के बाद भी उत्पादन शुरू होने में 2 से 3 महीने का समय लग सकता है। यानी इस सारी कवायद में 6 महीने से लेकर साल भर जा सकता है। 

दूसरी ओर कई देशों के इसके लिए राजी न होने के कारण भी स्वाभाविक नजर आते हैं। वैक्सीन तैयार करने वाली कई क पनियों का संबंध अमरीका सहित जर्मनी से लेकर यू.के. तक से है जबकि रूस और चीन की क पनियों ने भी अपनी-अपनी वैक्सीन तैयार कर रखी है।

एक कारण तो यही है कि जिन क पनियों ने ये वैक्सीन तैयार की हैं जैसे मॉडर्ना, फाइजर, एस्ट्राजैनेका, जॉनसन एंड जॉनसन आदि, उनका कहना है कि वैक्सीन को तैयार करने तथा इनकी रिसर्च पर इतना पैसा लगता है और लागत पूरी करने और मुनाफा कमाने के लिए ही एक निश्चित अवधि तक पेटैंट के अधीन उस वैक्सीन को तैयार करने तथा बेचने का अधिकार उसे तैयार करने वाली क पनी को होता है। यदि इतनी जल्दी पेटैंट खत्म करके उन्हें किसी को भी तैयार करने की इजाजत दे दी गई तो आगे से भला कोई क पनी भविष्य में किसी नए वायरस या महामारी के लिए अनुसंधान और शोध में पैसा क्यों लगाए। 

कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जब एड्स की वैक्सीन का पेटैंट हटा दिया गया था तो उसकी गुणवत्ता पर नजर रखना कठिन हो गया और वह इतने बड़े स्तर पर उपलब्ध हो गई कि उसका दुरुपयोग होने लगा था। इसी तरह यदि कोरोना की वैक्सीन पेटैंट के बिना बननी शुरू हो गई तो बड़ी जल्दी उसका असर भी खत्म हो सकता है और नया वायरस आ जाएगा तो उस पर वे वैक्सीन असरदार नहीं रहेंगी। इस बीच बेहद महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जहां रईस देशों ने बड़ी सं या में वैक्सीन तैयार करवाई हैं वहीं अनेक गरीब देशों में अभी लोगों को इन्हें लगाना तक शुरू नहीं किया जा सका है। 

वैक्सीन के इस असमान वितरण ने विकासशील और धनी देशों के बीच एक गहरी खाई पैदा कर दी है - कई देश जहां अरबों खुराक खरीद कर अपनी आबादी के बड़े हिस्से को टीके लगा चुके हैं और सामान्य स्थिति में लौटने की ओर कदम बढ़ा चुके हैं वहीं गरीब देशों के पास वैक्सीन की भारी कमी है और उनकी स्वास्थ्य सेवा पर भारी दबाव के बीच सैंकड़ों नागरिक रोज मर रहे हैं। लेकिन बड़े पैमाने पर यह असमानता सारी दुनिया के हितों के खिलाफ है। वैक्सीन विशेषज्ञों और मानवाधिकार समूहों ने चेतावनी दी है कि जितनी देर तक कोरोना का प्रसार विकासशील देशों में होता रहेगा वायरस के अधिक वैक्सीन प्रतिरोधी तथा अधिक घातक रूप अपना लेने की संभावना उतनी ही अधिक रहेगी। 

मार्च में प्रकाशित ऑक्सफैम इंटरनैशनल की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई कि वायरस यूटेशन एक वर्ष या उससे भी कम समय में वर्तमान टीकों को अप्रभावी कर सकते हैं। स्पष्ट है कि जब तक हम सारी दुनिया का टीकाकरण नहीं करते, वायरस के जोखिम को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता। ऐसे में पेटैंट को हटाना क पनियों के लिए हानिकारक नहीं हो सकता है मगर वैश्विक स्तर पर इसका फायदा नहीं हो सकेगा। यह सभी देशों के हित में है कि दुनिया भर में चाहे कोई व्यक्ति कहीं भी क्यों न रहता हो, उसे जल्द से जल्द वैक्सीन लगे। ऐसा न हुआ तो कोई भी देश सुरक्षित नहीं रह सकेगा।


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