‘बिगुल बंगाल चुनाव का’ ‘इस बार भाजपा खेल रही पूरा दांव’

punjabkesari.in Monday, Nov 23, 2020 - 01:52 AM (IST)

मध्यकालीन अंग्रेज कवि पी.बी. शर्ली ने अपनी एक कविता में कहा था ‘इफ विंटर कम्स कैन स्प्रिंग बी फार बिहाइंड’ अर्थात ‘अगर सर्दी आती है तो वसंत बहुत दूर नहीं रह सकता’। यकीनन उन्होंने ये पंक्तियां राजनीति के संदर्भ में नहीं कही थीं और भारतीय चुनावों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं, फिर भी यह कथन भारतीय राजनीति पर सटीक बैठता है क्योंकि बिहार के बाद अब बंगाल चुनावों की चर्चा गर्म है। देखना तो यह है कि अप्रैल 2021 में होने वाले इन चुनावों में किसकी ‘दुविधा’ या ‘शीत लहर’ समाप्त होती है और किसके लिए ‘बहार’ आती है! दुर्गा पूजा और दीपावली के दो प्रमुख त्यौहारों के साथ राजधानी कोलकाता में अगले बड़े त्यौहार का बिगुल बजने से पहले की उथल-पुथल वाली स्थिति है-हर पांच साल में आने वाला त्यौहार यानी राज्य के चुनाव। 

किसी भी चुनाव की तरह इन चुनावों में भी न सिर्फ अनिश्चितता तो बनी हुई है बल्कि ‘करो या मरो ‘वाला भाव भी है। कुछ कहा नहीं जा सकता कि राजनीतिक दलों के बीच वास्तव में युद्ध रेखाएं कैसा आकार लेंगी और फिलहाल कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि अधिक सपोर्ट उसे मिलेगा!एकमात्र निश्चितता यह है कि विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टी.एम.सी.) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच सीधी टक्कर देखने को मिलेगी। भाजपा के लिए यह एक ऐसी लड़ाई होगी जिसमें उनके पास हारने के लिए कुछ नहीं होगा। जहां तृणमूल कांग्रेस दो बार सत्ता में रहने के बाद एंटी इन्कम्बैंसी (सत्ता विरोधी लहर) तो देख पा रही है परंतु बंगाल में रहने वाले मुस्लिम मानते हैं कि एन.आर.सी. जैसे कानूनों के विरुद्ध उनकी अंतिम लड़ाई बंगाल के चुनावों में ही होगी। 

तृणमूल कांग्रेस शायद सबसे मजबूत और अंतिम विपक्षी पार्टी है जिसका जमीनी राजनीति से पक्का जुड़ाव है। ममता बनर्जी जैसे कुछ ही नेता भारतीय राजनीति में बचे हैं और वह ‘बंगाल बंगालियों के लिए’ जैसे नारे लगाने की कोशिश करेंगी। जहां तक भाजपा का सवाल है तो पांच साल बहुत लंबा समय नहीं है लेकिन प्रदेश भाजपा ने 2016 के चुनावों के बाद से एक लंबा सफर तय किया है, जब वह 294 सीटों में से केवल तीन सीटें ले सकी थी। 2019 में उसने 42 लोकसभा सीटों में से 18 सीटें जीत कर अपने विरोधियों को झटका दिया और अब 2021 में राज्य में सरकार बनाने वाली पार्टी बनना उसे अकल्पनीय नहीं लगता। भाजपा ने अपने प्रमुख नेताओं को अभी से बंगाल में उतार दिया है। जहां पार्टी ने अमित मालवीय जैसे आई.टी. सैल के निदेशक को वहां भेजा है तो गृह मंत्री अमित शाह भी वहीं देखे जा रहे हैं। 

भाजपा के पक्ष में चलने वाली लहरों के साथ विशेष रूप से हाल ही में हुए बिहार चुनावों में अपने प्रभावशाली प्रदर्शन के बाद पश्चिम बंगाल में भी स्विचओवर होने की उम्मीद है। बंगाल की दिशा अब मुख्यत: ‘पहचान की राजनीति’ द्वारा तय की जाएगी। आजादी के बाद पहली बार पश्चिम बंगाल बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण देख रहा है। अब तक वामपंथी विचारधारा और कांग्रेस से निकली हुई सोच के बीच में चुनाव लड़ा जाता था परंतु आने वाले चुनावों में ‘पहचान’ या व्यक्तिवाद की राजनीति एक प्रमुख भूमिका निभाने जा रही है। 

कांग्रेस और वाम दलों के मुस्लिम उम्मीदवारों और नेताओं के टी.एम.सी. में शामिल होने और टी.एम.सी. के हिन्दू नेताओं के भाजपा में जाने की संभावना हो सकती है। यूं तो बंगाल में होने वाले हर चुनाव में दंगा और फसाद होता ही है परंतुु इस बार तो बहुत अधिक भाजपा नेताओं पर हमला हो चुका है। टी.एम.सी. का कहना है कि जहां कहीं कोई ङ्क्षहसक वारदात होती है, भाजपा प्रभावित व्यक्ति को अपनी पार्टी का सदस्य बता देती है। भाजपा ने बंगाल में गुजरात जैसी सरकार लाने का दावा किया है, देखना अब यह है कि बंगाली जनता इसे कैसे लेती है! चुनावों में जीत-हार जिस किसी की भी हो एक बात तो तय है कि प्रदेश में होने वाली भाजपा और टी.एम.सी. से जुड़े लोगों की हत्याओं ने वातावरण अत्यंत तनावपूर्ण कर दिया है जिसका असर चुनावों में भी देखने को मिलेगा। 


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