प्रकाशनार्थ अजय पण्डिता की निर्मम हत्या

punjabkesari.in Friday, Jun 12, 2020 - 03:30 PM (IST)

हाल ही में दक्षिणी कश्मीर में हुई सरपंच अजय पण्डिता भारती की निर्मम हत्या को लेकर यह कहा जा रहा है कि पण्डिता ने स्वेच्छा से कश्मीर में ही रहने का निर्णय लिया था।उन्हें पूरी उम्मीद थी कि घाटी का तनावपूर्ण माहौल एक न एक दिन ज़रूर बदलेगा।वे शायद दूसरे पंडितों को भी प्रेरित कर रहे थे कि वे भी घाटी में लौट आएं।सवाल यह है कि अजय ने वहां के बहुसंख्यकों पर विश्वास कर घाटी न छोड़ने का जो फैसला किया,क्या वह सही था?विश्वास टूटा था तभी तो लगभग चार लाख पंडित घाटी से बेघर होने को विवश हुए थे। दरअसल,सच्चाई यह है कि कश्मीर समस्या न राजनीतिक समस्या और न कूटनीतिक।असल में,यह संख्या-बल की समस्या है।जब तक पंडित-समुदाय वहाँ पर अल्पमत में रहेगा तब तक उस पर हर तरह की ज़्यादतियां होती रहेंगी।मुझे लड़कपन की एक बात याद आ रही है। 

हमारे समय में भारत-पाक क्रिकेट खेल के दौरान यदि पाक टीम भारत के हाथों हार जाती थी तो स्थानीय लोगों का गुस्सा ‘पंडितों’ पर फूट पड़ता था। उनके टीवी/रेडियो सेट तोड़ दिए जाते,धक्का मुक्की होती आदि।भारत टीम के विरुद्ध नारे बाज़ी भी होती।और यदि पाक टीम जीत जाती तो मिठाइयां बांटी जाती या फिर रेडियो सेट्स पर खील/बतासे वारे जाते।यह बातें पचास/साठ के दशक की हैं। तब मैं कश्मीर में ही रहता था और वहां का एक स्कूली/कॉलेज छात्र हुआ करता था।भारतीय टीम में उस ज़माने में पंकज राय,नारी कांट्रेक्टर,पोली उमरीगर,गावस्कर,विजय मांजरेकर,चंदू बोर्डे,टाइगर पड़ौदी,एकनाथ सोलकर आदि खिलाड़ी हुआ करते थे।

कहने का तात्पर्य यह है कि कश्मीर में विकास की भले ही हम लम्बी-चौड़ी दलीलें देते रहें,भाईचारे का गुणगान करते रहें या फिर ज़मीनी हकीकतों को जानबूझकर दबाये रखें,मगर असलियत यह है कि लगभग चार/पांच दशक बीत जाने के बाद भी हम वहां के आमजन का मन अपने देश के पक्ष में नहीं कर सके हैं।सरकारें वहां पर आयीं और चली गयीं मगर कूटनीतिक माहौल वहां का जस का तस रहा।

कौन नहीं जानता कि वादी पर खर्च किया जाने वाला अरबों-खरबों रुपैया सब अकारथ जा रहा है।’नेकी कर अलगाववादियों की जेबों में डाल’ इस नई कहावत का निर्माण वहां बहुत पहले हो चुका था।यह एक दुखद और चिंताजनक स्थिति है और इस स्थिति के मूलभूत कारणों को खोजना और यथासम्भव शीघ्र निराकरण करना बेहद ज़रूरी है।कश्मीर समस्या न मेरे दादाजी के समय में सुलझ सकी, न पिताजी के समय में ही कोई हल निकल सका और अब भी नहीं मालूम कि मेरे समय में यह पहेली सुलझ पाएगी या नहीं!आगे प्रभु जाने।

(डॉ0 शिबन कृष्ण रैणा)


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Author

Riya bawa

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