प्रशांत भूषण को दी गई सज़ा सर्वोच्च न्यायालय का संविधान और लोकतंत्र पर हमला।

punjabkesari.in Friday, Sep 04, 2020 - 03:32 PM (IST)

देश के जाने-माने वकील और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के जजों की आलोचना किए जाने पर उन्हें सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया गया और उसके लिए उन्हें 1 रुपये का जुर्माना लगाया गया है। जुर्माना अदा न करने पर 3 माह की जेल की कैद और सर्वोच्च न्यायालय में 3 साल तक प्रेक्टिस पर पाबंदी की सजा सुनाई गई है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने प्रशांत भूषण द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के जजों की की गई आलोचना को बहुत गंभीर माना और इसे सर्वोच्च न्यायालय के अपमान के रूप में देखा। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय की इस खंडपीठ ने प्रशांत भूषण से माफी मांगने को कहा, लेकिन प्रशांत भूषण ने माफी मांगने से साफ-साफ इंकार कर दिया और कहा कि मुझे जो सजा दी जाएगी, मैं उसे भुगतने के लिए तैयार हूं। अदालत की अवमानना के संबंध में जो कानून है उसमें किसी आरोपी को ₹ 2000 का जुर्माना या तीन माह की कैद की सजा या फिर यह दोनों ही सजा किसी आरोपी को दी जा सकती है। चूंकि प्रशांत भूषण का यह मामला संविधान द्वारा नागरिकों को दी गई अभिव्यक्ति की आज़ादी से संबंधित है। इसलिए प्रशांत भूषण ने इस मामले में माफी मांगने से इंकार कर दिया और संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आज़ादी की सुरक्षा के लिए खड़े हो गए जिसका देशभर में स्वागत किया गया और यह भी कहा गया कि प्रशांत भूषण हरगिज़ माफ़ी ना मांगे।

प्रशांत भूषण के इस अडिग रवैये को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा ऐसी सजा सुनाई गई जिसे मानने के लिए प्रशांत भूषण इसे मानने के लिए विवश हो जाएं। किसी अदालत द्वारा किसी आरोपी को दी गई सजा को भुगतना अलग बात है और किसी सजा को भुगतने के लिए विवश करना अलग बात है अर्थात इस मामले में कोर्ट की अवमानना की सजा या 2000 जुर्माना या तीन माह की कैद की सज़ा या फिर दोनों सज़ाएं हैं। प्रशांत भूषण माफी ना मांगकर इस सज़ा को भुगतने के लिए तैयार थे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने प्रशांत भूषण के लिए इस कानूनी सज़ा को काफी नहीं समझा। चूंकि खंडपीठ ने प्रशांत भूषण द्वारा जजों की आलोचना को सर्वोच्च न्यायालय के अपमान के रूप में देखा इसलिए वें प्रशांत भूषण द्वारा कानूनी सज़ा को भुगते जाने को सामान्य सज़ा समझते थे।

यह ऐसी सज़ा थी जिससे सर्वोच्च न्यायालय की मंशा नहीं पूरी होती थी। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय यह चाहता था कि प्रशांत भूषण को ऐसी सजा दी जाए जो प्रशांत भूषण की आत्मा तक को हिला दे। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने प्रशांत भूषण को ऐसी सजा दी क्योंकि प्रशांत भूषण जुर्माना और कैद की सजा को बिना झिझक भुगत सकते थे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने वकालत की अपनी प्रेक्टिस पर पाबंदी को नहीं सहन सकते थे। ऐसा लगता है कि कोर्ट की मंशा यह भी थी कि प्रशांत भूषण को अवमानना की कानूनी सज़ा को भुगतने से देश के लोगों की नज़र में इन्हें हीरो बनने से भी रोका जाए। यह बात निश्चित है कि अगर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रशांत भूषण को अवमानना की कानूनी सज़ा दी जाती तो प्रशांत भूषण उस सज़ा को बेझिझक भुगतने को तैयार होते जिसके नतीजे में पूरे देश में संविधान बचाओ उग्र आंदोलन शुरू हो जाता विशेषकर सुप्रीम कोर्ट के जजों और स्वयं सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ भी यह आंदोलन भड़क उठता। इस प्रकार मोदी सरकार के दौरान सुप्रीम कोर्ट काम कर रहा है इससे देश में भारी नाराजगी पाई जा रही है।

सर्वोच्च न्यायालय के जज अपने फैसले के जरिए सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को मिट्टी में मिला रहे हैं और संविधान और लोकतंत्र पर कुठाराघात भी कर रहे हैं। जिसको बचाने की इनकी ज़िम्मेदारी थी। अयोध्या विवाद की सुनवाई करने वाली मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने जिस प्रकार न्याय की हत्या करते हुए केंद्र सरकार के इशारे पर हिंदुओं के पक्ष में फैसला दिया उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है क्योंकि इस फैसले ने सर्वोच्च न्यायालय के जजों की औकात को बता दिया है। राम मंदिर के पक्ष में फैसला देने के बदले में मोदी सरकार ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा का मनोनीत सदस्य बना लिया। क्या यह सर्वोच्च न्यायालय के जजों के लिए शर्मनाक बात नहीं है और क्या इससे सर्वोच्च न्यायालय और इसके जजों की गरिमा मिट्टी में नहीं मिलती? सर्वोच्च न्यायालय के जजों को प्रशांत भूषण द्वारा उनकी आलोचना से उनका और सर्वोच्च न्यायालय का अपमान हो जाता है जबकि यह आलोचना संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है।

सवाल उठता है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के जज ईश्वर हैं जो उनकी आलोचना नहीं की जा सकती? सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को उनकी रिटायरमेंट के चंद माह बाद राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किए जाने से सर्वोच्च न्यायालय का जो अपमान हुआ है वह अपमान क्या प्रशांत भूषण को सज़ा देने वाली सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ को नहीं दिखाई पड़ा। पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई का राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया जाना सर्वोच्च न्यायालय को रसातल में पहुंचाने के बराबर है। इस घटना ने देश के लोगों का विश्वास सर्वोच्च न्यायालय से उठा दिया है और अब प्रशांत भूषण को सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का दोषी मानकर जो सज़ा सुनाई गई है उसने संविधान और लोकतंत्र को ढहाने का काम किया है। क्योंकि इस फैसले ने संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त अभिव्यक्ति की आज़ादी को समाप्त करने का दरवाज़ा खोल दिया है।

इस फैसले से सर्वोच्च न्यायालय की तानाशाही भी सामने आती है क्योंकि प्रशांत भूषण को अवमानना की निर्धारित कानूनी सज़ा देने के बजाय उनके वकालत के पेशे पर पाबंदी लगाने की बात कही गई है। यह फैसला सुनाकर खंडपीठ के जजों ने ना सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय का अपमान किया है बल्कि इसकी रही-सही गरिमा को भी मिट्टी में मिला दिया है। प्रशांत भूषण को दी गई सज़ा खंडपीठ के जजों की कुंठा को दर्शाता है ना कि तर्कसंगत न्याय को।

(रोहित शर्मा विश्वकर्मा)


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