जान बची तो लाखों पाए

punjabkesari.in Monday, May 18, 2020 - 04:25 PM (IST)

कोरोना -जनित संकट की मार को और अब ज्यादा न सहने के फलस्वरूप अपने-अपने ठिकानों से घर-गाँव जाते और रास्तों में फंसे मज़दूरों का मर्मान्तक हाल लगभग हर चैनल अपनी लच्छेदार/भावपूर्ण कमेंटरी के साथ इन दिनों दिखा रहा है।शायद अपनी टी-आर-पी बढाने के लिए। इस दैवी आपदा से जनित संकट को दिखाने की जैसे होड़-सी मची हो। इन बेसहारा मज़दूरों की सुख-सुविधा के लिए कोई आगे बढ़कर करता-धरता कुछ भी नहीं है।बस, बातें और आलोचनाएं।घोर महामारी के इस संकट में मज़दूरों को लेकर राजनीतिक रोटिया सेंकने का यह समय नहीं बल्कि उनके लिए कुछ करने का समय है।

ए०सी० में बैठकर इन लाचार मज़दूरों के पक्ष में पोस्ट डालने या ट्वीट करने से अच्छा है कि उनके साथ इस तपती धूप में खुद पैदल-मार्च कर उनके दुःख-दर्द को बांटा जाय,उनके साथ रूखा-सूखा खाया जाय या फिर उनके लिए भोजन-पानी आदि का प्रबंध किया जाय।कितने लोग ऐसा कर रहे हैं?अगर नहीं कर सकते तो आसमान सिर पर उठाना भी कोई समझदारी नहीं है। यह आपदा प्रकृति की देन है। किसी ने थोपी नहीं है, जो उसकी गर्दन पकड़ ली जाय। अगर जान बच रही है तो समझ लीजिये कि आपने लाखों पा लिए। गालिब का यह शेर याद आ रहा है: 

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना। ग़ालिब के मुताबिक़ दर्द अगर हद से गुज़रने लगे तो समझिए अब कोई और दवा काम नहीं करेगी।बल्कि, वो दर्द ख़ुद अपना इलाज करेगा। यानि अपने मर्ज़ की दवा वो ख़ुद बन जाएगा। 

सारांशतः बहुत बड़ी विपत्ति को झेलने के लिए बहुत बड़ा दिल भी चाहिए।इन असहाय मजदूरों पर दया अवश्य आती है, मगर इनकी समझ पर उससे भी ज्यादा तरस आता है।ये लोग स्वयं अपने हित की बातों को समझ पाने में भी असमर्थ हैं।लगता है अपनी सरकारों के जनहितैषी निर्देशों का पालन न कर ये लोग भेड़चाल के वशीभूत होकर मनमानी और भागमभाग पर उतर आए जिस की वजह से इन्हें यह कष्ट उठाना पड़ा है।स्वयं मारे जा रहे हैं और साथ ही पूरे देश का संकट भी बढ़ा रहे हैं। 

वैसे, इतना अवश्य है कि शायद लाकडाउन में गरीबों पर ही अधिक मार पड़ी है। समर्थ,सरकारी कर्मचारियों और साधनसम्पन्न लोगों को तो कोई ख़ास नुकसान नहीं हुआ है। लॉकडाउन के चलते रोजगार के ठप होने की सबसे अधिक मार गरीब मजदूरों पर पड़ी है। लॉकडाउन की वजह से काम बंद हुआ तो लाखों की संख्या में मजदूर जहां थे पहले तो वही रुक गए और बाद में वे ज्यादा दिन नहीं रुक सके क्योंकि बचत-पूंजी भी खत्म होने को आ गयी थी। अतः पैदल ही घर के लिए रवाना हो जाना का उन्होंने निर्णय लिया।शायद उन्होंने समझ लिया था कि ‘जान बची तो लाखों पाए।’

(डा०शिबन कृष्ण रैणा) 


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Author

Riya bawa

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