इरफ़ान खान दिल को छू लेने वाले अभिनय के लिए हमेशा किए जाएंगे याद

punjabkesari.in Saturday, May 09, 2020 - 05:28 PM (IST)

मृत्यु एक ऐसा सच है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता। जो पैदा हुआ है वह एक दिन अवश्य मरेगा। ये एक खुली सच्चाई है कि लोग मरने वालों कों भूल जाते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी अच्छी सोच और अपने कार्यों के लिए याद किए जाते हैं चाहे उनका संबंध किसी भी कार्य क्षेत्र से हो। इरफ़ान खान ऐसे ही लोगों में शामिल हैं जिनका उल्लेख पिछले वाक्य में हुआ है। रंगमंच और फिल्मों को हमारे समाज द्वारा काफी महत्व दिया जाता है क्योंकि यह माध्यम समाज को राह दिखाने का महत्वपूर्ण काम करते हैं। यही कारण है कि रंगमंच के कलाकार और फिल्म अभिनेताओं को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और ये लोग समाज के आदर्श बन जाते हैं क्योंकि अपने अभूतपूर्व अभिनय के कारण लोगों का दिल जीत लेते हैं। इरफ़ान खान उनमें से एक हैं जिन्होंने अपने अभूतपूर्व अभिनय से लोगों की प्रशंसा और सराहना अपनी फिल्मों 'मक़बूल', 'हासिल', 'पीकू', 'द नेमसेक', 'रोग', 'पान सिंह तोमर', 'हिन्दी मीडियम', 'अंग्रेज़ी मीडियम', 'लाइफ इन अ मेट्रो', 'बिल्लू बारबर', 'द लंच बॉक्स', 'सलाम बोम्बे', 'काली सलवार', 'सुपारी', 'राइट या रोन्ग', 'तलवार', 'हैदर' आदि  में किए गए अभिनय के कारण प्राप्त किया जिनमें समाज की कड़वी सच्चाइयों को पेश किया गया है। जहाँ तक दर्शकों का संबंध है उन्होंने खुले दिल से इरफ़ान की प्रशंसा और सराहना की। 

वास्तविकता यह है कि इरफ़ान की सभी फिल्में सामाजिक विषयों पर बनी है जो समाज को परेशान करती थीं। इनकी फिल्मों के नाम से भी यह ज़ाहिर होता है कि इनकी फिल्में समाज की कड़वीं सच्चाईयों को करती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जब कोई फिल्म निर्माता समाज की कड़वी सच्चाईयों को प्रदर्शित करने वाला कोई विषय चुनता था तो वो ऐसी फिल्म के लिए बतौर हीरो इरफ़ान खान को साइन करने के लिए मजबूर होता था क्योंकि ऐसे सभी फ़िल्म निर्माता यह जानते थे कि इरफ़ान खान को जो भी भूमिका दी जाएगी तो वो अपने अभिनय से इसे जीवंत कर देंगे और जब सिनेमा दर्शक इरफ़ान खान की फिल्मों को देखते थे तो इरफ़ान खान के अभिनय को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते थे और वें इस नतीजे पर पहुँचते थे कि इरफ़ान खान अपने किरदार को जीवन प्रदान कर देते हैं जिसकी भूमिका निभाने के लिए उनको चुना जाता है। 

इरफ़ान खान का फिल्मी सफ़र बेहद संघर्षपूर्ण रहा। हालांकि उन्होंने अपने फिल्मी सफ़र का आगाज़ 1988 में आई फिल्म 'सलाम बॉम्बे' में एक छोटी सी भूमिका के साथ किया लेकिन उन्हें हीरो के तौर पर मान्यता नहीं मिली लेकिन उन्हें लम्बे समय तक बतौर हीरो मान्यता नहीं मिली। 2003 में जब उनकी दो फिल्में 'मक़बूल' और 'हासिल' प्रदर्शित हुई तब वो बतौर हीरो जाने गए और फिर आने वाली उनकी सभी फिल्मों ने लोकप्रियता हासिल की। अपने संघर्ष के दिनों में उन्होंने अपनी जीविका कमाने के लिए टेलीविज़न स्क्रीन के लिए काम किया और कई धारावाहिकों में यादगार भूमिकाएं निभाई। उनके इन धारावाहिकों में 'चाणक्या', 'भारत एक खोज', 'बनेगी अपनी बात', 'सारा जहाँ हमारा', 'श्रीकांत', 'अनुगूंज', 'स्टार बेस्टसेलर्स', 'स्पर्श', 'द ग्रेट मराठा' यह शामिल हैं। इरफ़ान खान ने इन धारावाहिकों में अपने टैलेंट को पेश किया और टीवी दर्शकों से प्रशंसा और सम्मान हासिल किया।

इरफ़ान खान 'राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय' (एनएसडी) के स्नातक हैं जहाँ उनको अपने टैलेंट को निखारने का अवसर प्राप्त हुआ। वास्तव में एनएसडी के प्रशिक्षण ने उन्हें अभिनेता बना दिया और जब वे अभिनय के मैदान में उतरे तो उन्होंने अपने अभिनय का लौहा मनवाया। उन्होंने हॉलीवुड में भी अपनी किस्मत को आज़माया जहाँ उनका स्वागत खुले दिल से किया गया। उनकी फिल्में 'द अमेज़िंग स्पाईडर', 'लाईफ ऑफ पाई', 'जुरासिक वर्ल्ड', ' इनफेरनो' हॉलीवुड में उनके सफ़र की कामयाबी की कहानी बताती है। हिंदी फिल्मों में अपने सुपर और उम्दा अभिनय के लिए इन्हें बहुत सारे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया जिनमें 4 फिल्मफेयर पुरस्कार, 4 स्क्रीन पुरस्कार, 1 स्टारडस्ट पुरस्कार, 2 प्रोड्यूसर गिल्ड फिल्म पुरस्कार शामिल हैं। इसके अलावा भारत सरकार द्वारा भी इन्हें 'पद्म श्री' सम्मान से भी नवाज़ा गया। यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि वो अपनी मृत्यु तक राजस्थान सरकार के ब्रैंड एंबेसेडर रहे।

फिल्म समीक्षकों के अनुसार आज के दौर का कोई भी अभिनेता अभिनय के क्षेत्र में इरफ़ान खान का मुकाबला नहीं कर सकता है। उनकी मृत्यु के बाद उनकी रिक्त जगह को पूरा करना संभव नहीं है। अंत में लंडन के समाचार पत्र 'द गार्ज़ियन' के फिल्म समीक्षक पीटर ब्रैडशॉ द्वारा इरफ़ान खान के अभिनय के बारे में की गई इस टिप्पणी से भी उनके अभिनय की महानता का पता चलता है। जिसमें उन्होंने कहा "हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा के फिल्मों के एक विशिष्ट और करिश्माई अभिनेता जिन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से साउथ एशियन फिल्मों और हॉलीवुड फिल्मों के बीच एक बहुमूल्य पुल बनाने का काम किया।"                 
इरफ़ान खान एक उदारवादी मुसलमान थे और मुस्लिम उलेमा द्वारा प्रचारित किए जाने वाले इस्लामी कट्टरपंथ को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। यहां उनकी माता द्वारा उनके फिल्मी करियर के बारे में किए गए बयान का ज़िक्र करना अप्रासंगिक नहीं होगा। जब उनकी माँ को पता चला कि इरफ़ान फिल्मों में काम करने लगे हैं तो उन्होंने इस पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की। फिल्म उद्योग में वो सम्मान के दृष्टि से देखे जाते थे और अपने सभी सह - कलाकारों, निर्देशकों, निर्माताओं व फिल्म जगत के दूसरे लोगों के साथ उनके अच्छे संबंध रहे।

(रोहित शर्मा विश्वकर्मा)

 


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Author

Riya bawa

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