सुप्रीम कोर्ट विवाद: जानिए क्यों उठा न्याय पर सवाल
punjabkesari.in Saturday, Jan 13, 2018 - 12:01 PM (IST)
नेशनल डेस्कः सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्र में आरपी लुथरा बनाम भारत संघ के मामले की बात की है। यह मामला उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित थी, जिसका अभी चल रहे विवाद में महत्वपूर्ण योगदान है। दरअसल, साल 2015 में आए इस निर्णय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) की जगह कॉलेजियम व्यवस्था लाई गई थी। इस व्यवस्था के तहत सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम जज कॉलेजियम के तौर पर काम करते हैं और उच्च न्यायपालिका के लिए जजों की नियुक्ति करते हैं। वे लोग केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों के साथ संपर्क करने की प्रक्रिया का पालन करते हैं, जिसे मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीड्यूर (एमओपी) कहा जाता है। एनजेएसी मामले में एमओपी में सुधार का मुद्दा उठाया गया, जिसमें विशेष तौर पर पारदर्शिता का मामला रहा। एनजेएसी मामले के निर्णय के बाद एमओपी के मुद्दे पर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच टकराव पैदा हो गया। पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर न्यायिक नियुक्ति को लेकर सरकार की भूमिका की खुलकर आलोचना की थी कि इसमें सांसदों की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। लेकिन मार्च 2017 में मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर के कार्यकाल के दौरान एमओपी अंतिम रूप देकर सरकार के पास इसे भेज दिया।
उल्लेखनीय है कि मई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार कलकत्ता हाईकोर्ट के एक जज सीएस कर्णन को अवमानना के आरोप में 6 महीने की सजा दी थी। इस मामले में न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने अपनी अलग राय रखी थी। उन्होंने कहा था कि यह मामला दो तरह की समस्याओं की ओर ध्यान दिलाता है, जिसमें एक समस्या जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया का है तो दूसरा जजों की नैतिकता को जांचने के लिए एक उचित व्यवस्था बनाने की आवश्यकता की है। इस मामले को 27 अक्तूबर 2017 में आरपी लुथरा बनाम भारत संघ के मामले के साथ देखा जा सकता है, जिसमें याचिकाकर्ता ने एमओपी को जल्द से जल्द अंतिम रूप देने की बात कही थी ताकि उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीशों का पद खाली न रहे। अब सवाल यह उठता है कि अगर एमओपी को अंतिम रूप दे दिया गया था तो फिर इसके ऊपर सवाल खुला क्यों छोड़ दिया गया है। इस मामले की सुनवाई दो जजों की एक बेंच ने की थी और एमओपी के साथ-साथ हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को अंतिम रूप देने के लिए जस्टिस कर्णन के मामले का संदर्भ दिया गया था। इसके ऊपर अंतिम निर्णय मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल में ही हुआ।
दरअसल समस्या की शुरुआत जजों की संख्या बढऩे और सुप्रीम कोर्ट के पास केसों की संख्या का दबाव है। पहले सुप्रीम कोर्ट में केवल सात जज होते थे और किसी मामले पर सभी जज एक साथ बैठकर फैसला करते थे। इसका मतलब है कि कोई भी मामला सभी जजों से होकर गुजरता था। लेकिन, धीरे-धीरे सुप्रीम कोर्ट का विस्तार हुआ और जजों की संख्या भी बढ़ गई, जिसके बाद मामलों की सुनवाई के लिए जजों की बेंच बनाने की जरूरत पडऩे लगी। इस तरह की बेंच बनाने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पास होता है, जो रोस्टर के आधार पर इसका गठन करते हैं। वही मामले को देखते हुए उसमें विशेषज्ञता रखने वाले जजों को बेंच में शामिल करते हैं। अभी जो मामला सामने आया है, उसमें इसी के ऊपर सवाल उठाया गया है कि मुख्य न्यायाधीश अपने इस विशेषाधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं और अपनी पसंद के जजों के पास चुनिंदा मामले भेज रहे हैं।