बृहस्पतिवार स्पेशल: लक्ष्मी-ऐश्वर्य का सुख पाने के लिए करें इनकी Respect
punjabkesari.in Wednesday, Nov 01, 2017 - 10:23 AM (IST)
एक बार जब देवराज इंद्र अपने सब शत्रुओं को परास्त कर, पूरी तरह से निश्चिंत होकर समस्त देवगणों के साथ देवलोक का सुख भोग रहे थे, तब अपनी विजय, श्री लक्ष्मी तथा ऐश्वर्य का उन्हें ऐसा मद चढ़ा कि नित्य प्रति आमोद-प्रमोद में अपना जीवन बिताने लगे। दरबार में रास-रंग होता, अप्सराओं का नृत्य-गान संगीत चलता था।
एक दिन दरबार में ऐसे ही राग-रंग का आयोजन था। देव-सभा लगी थी। इन्द्र इन्द्रासन पर बैठे सोमरस पान कर रहे थे। अन्य देवगण अपने-अपने आसन पर विराजमान सोमरस का आनंद ले रहे थे। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। सिद्ध, चरण, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि उनकी स्तुति कर आमोद-प्रमोद में भाग ले रहे थे। इसी समय देवगुरु आचार्य बृहस्पति देव-सभा में पधारे। इन्द्र तथा अन्य देवों ने देखा कि आचार्य बृहस्पति देव-सभा में पधारे हैं, लेकिन न तो किसी ने उठकर उनका अभिवादन किया, न किसी ने बैठने को कहा। ऐसा लगा, जैसे असमय कोई अवांछित व्यक्ति देव-सभा में आ गया है। सब नृत्य-गान में इतने मस्त थे कि गुरु के आदर तथा उनकी मर्यादा का ध्यान किसी ने नहीं किया।
आचार्य बृहस्पति को इस बात से इतना कष्ट नहीं हुआ कि किसी ने उनका स्वागत या अभिवादन नहीं किया, जितना इस बात से कि ऐश्वर्य और ‘श्री’ पाकर ये देवता पथ-भ्रष्ट हो गए हैं और आसुरी वृत्तियों के वशीभूत हो गए हैं। इस समय इनमें और असुरों में क्या अंतर है? आचार्य बृहस्पति ने सोचा, ऐसे मदांध और अमर्यादित देवों का आचार्यत्व अब वह नहीं करेंगे और बिना किसी से कुछ कहे वह देव-सभा से तत्काल अपने घर चले गए।
कुछ समय उपरांत जब देव-सभा समाप्त हुई और अप्सराएं चली गईं तो इन्द्र को ध्यान आया कि, ‘‘आचार्य बृहस्पति आए थे। हमने उनका सम्मान न करके बड़ी भूल की। हमें यह श्री-समृद्धि उन्हीं के मार्ग-दर्शन से प्राप्त हुई है और हमने मदांध हो उनकी उपेक्षा तथा अपमान किया। हमसे भयंकर भूल हुई है। चलो, चलकर आचार्य से अपनी भूल के लिए क्षमा मांगेंगे।’’
ऐसा विचार कर इन्द्र अपने अन्य प्रमुख देवगणों के साथ आचार्य बृहस्पति के निवास पर आए तो पता लगा कि आचार्य तो यहां आए ही नहीं। इन्द्र ने बहुत ढूंढा-ढुंढवाया, पर बृहस्पति का कहीं पता न चला। इन्द्र समझ गए, आचार्य रुष्ट होकर कहीं भूमिगत हो गए हैं और हमें क्षमा मांगने का भी अवसर नहीं देना चाहते।
उधर असुरों के गुरु शुक्राचार्य को जब पता लगा कि इन्द्र के दुर्व्यवहार से रुष्ट होकर आचार्य बृहस्पति ने देवलोक छोड़ दिया है तो उन्होंने असुरों को उकसाया कि, ‘‘बहुत अच्छा अवसर है। देवलोक पर धावा बोल दो और उनकी श्री-समृद्धि सब लूट लो। देवगण मदमत्त होकर अकर्मण्य और गुरु विहीन हो चुके हैं। उनका मार्ग-दर्शन करने वाला अब कोई नहीं है।’’
अपने गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा पाकर असुरों ने देवलोक पर धावा बोल दिया। सारे देवलोक में खलबली मच गई। असुरों की मार से डरकर देवगण इधर-उधर भागकर छिपने लगे। इन्द्र दौड़े-दौड़े बह्मा के पास आए और कहा, ‘‘अब क्या करें। एक छोटी-सी भूल के कारण देवलोक की शांति भंग हो गई है। श्री-संपदा लुट रही है। हम सब बेघर होकर इधर-उधर छिपकर प्राण बचाते फिर रहे हैं। आदिदेव ब्रह्मा जी! अब आप ही हमारे उद्धार का उपाय करें।’’
ब्रह्मा जी ने देखा, वास्तव में देवताओं की बड़ी दुर्दशा हो रही है। उन्होंने कहा, ‘‘देवेन्द्र! है तो सचमुच बड़े दुख की बात, पर दुर्दशा के मूल कारण तो तुम सब स्वयं ही हो। तुम लोगों ने ऐश्वर्य के मद में अपने वेदज्ञ गुरु बृहस्पति का तिरस्कार किया। जो तुम्हारे कल्याण के लिए हमेशा ढाल बन कर खड़े रहते थे, जिनके तेज-प्रताप से असुर देवलोक की ओर आंख उठाने में हिचकते थे, अपने उसी गुरु का तुम सबने अपमान किया। आचार्य बृहस्पति का रूठ कर चले जाना उचित ही है। जहां अनीति हो वहां नीतिज्ञ क्यों रहेगा? देखो असुरों ने अपने गुरु शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में कैसे तुम लोगों को दर-दर भटकने को विवश कर दिया है। भृगुवंशी शुक्राचार्य ने असुरों को ऐसी शिक्षा दे रखी है कि वे जब जो चाहें कर सकते हैं। अब तो बस एक ही उपाय है कि अब तुम सब अथर्वण ऋषि त्वष्टा के पुत्र आचार्य विश्वरूप के पास जाओ। उनकी सेवा करो और उन्हें प्रसन्न करो। यदि वह चाहेंगे तो वही तुम्हें इस संकट से मुक्ति दिला सकते हैं।’’
ब्रह्मा जी के इस सुझाव से इंद्र थोड़ा आश्वस्त हुए। सब लोग मिलकर विश्वरूप के पास गए। विश्वरूप को अपनी सारी व्यथा सुनाई तथा कहा कि वे देवों का आचार्यत्व स्वीकार कर उनके देवलोक में पुन: स्थापित करें।
विश्वरूप ने कहा, ‘‘देवेन्द्र! आपने कुलगुरु आचार्य बृहस्पति का जैसा तिरस्कार किया है, आगे चलकर आप फिर से श्री-समृद्धि प्राप्त कर वैसा ही तिरस्कार तथा अपमान कर सकते हैं। आप लोगों का क्या भरोसा? पुरोहिती का कार्य दूसरों के लिए भले की कल्याणकारी होता है, पर उससे उसका ब्रह्मतेज क्षीण होता रहता है, इसलिए मैं पौरोहित्य कार्य नहीं करना चाहता।’’
इन्द्र ने कहा, ‘‘आचार्य! ऐसी आशंका मत कीजिए। ऋषि-ब्राह्मण तो परोपकार का पुण्य करते ही रहते हैं। कितने ही ऋषियों-ब्राह्मणों ने देवकार्य के लिए अपने को न्यौछावर किया है। आप इतने बड़े देवज्ञ तथा तपस्वी हैं कि देवों के कल्याण के लिए आपके इस कार्य से आपका ब्रह्मतेज क्षीण नहीं होगा।’’
इस प्रकार इंद्र तथा देवों के बहुत अनुनय-विनय करने पर विश्वरूप ने देवों का आचार्यत्व स्वीकार कर लिया तथा उन्होंने अपनी वैष्णवी विद्या के प्रभाव से देवों की वह सारी संपदा, जो असुरों ने शुक्राचार्य के नीतिबल से प्राप्त कर ली थी, सबकी सब देवों को प्राप्त करा दी। युद्ध में असुर परास्त होकर देवलोक छोड़कर भाग निकले। विश्वरूप के आगे शुक्राचार्य की नीति काम न आई।
देवलोक में जब इंद्र पुन: प्रतिष्ठापित होकर इंद्रासन पर बैठे और देवों को अपनी सब पूर्व संपदा प्राप्त हो गई तो उन्होंने विश्वरूप के समक्ष एक विजय-यज्ञ करने का प्रस्ताव रखा तथा उसका ऋत्विज स्वीकार करने का आग्रह किया। विश्वरूप ने कहा, ‘‘देवेन्द्र! पुरानी घटना से भविष्य में इस बात को हमेशा ध्यान में रखना कि चाहे जितने बड़े पद पर बैठे रहो, पर प्रभुता के मद में ऋषियों, ब्राह्मणों, गुरुजनों का कभी अनादर मत करना। इन सबको अपने से अधिक मान देना। अब जाकर आचार्य बृहस्पति से अपने अपराधों की क्षमा मांगो और जो भी यज्ञ करना कराना हो, उन्हीं के मार्ग-दर्शन में करवाओ।’’
इंद्र को अपनी भूल का पश्चाताप होने लगा। उन्होंने सिर झुकाकर विश्वरूप का आदेश स्वीकार कर लिया।
(श्रीमद् भागवत पुराण से)
—गंगा प्रसाद शर्मा
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