गुरमति के अनुसार करें भोजन, मोटापे और बीमारियों से रहेंगे दूर

punjabkesari.in Saturday, Feb 17, 2018 - 02:32 PM (IST)

रुखी सुखी खाइ कै...
भोजन सभी जीवों सहित मनुष्य की भी मूल आवश्यकता है। गुरमति में व्रत रखने तथा भूखे रहने का स्पष्ट विरोध एवं खंडन है :
अंनु न खाइआ सादु गवाइआ।। बहु दुखु पाइआ दूजा भाइआ।। (पन्ना 467)


गुरमति चिंतन हर पक्ष से उचित तथा इच्छित समन्वय कायम करता है। गुरमति द्वारा हमें यह मार्ग दर्शाया गया है कि हमने भोजन कैसा करना है। इस विलक्षण विश्व-दर्शन में सादा खान-पान के पक्ष में हमारा आदर्श पथ-प्रदर्शन किया गया है।


समय या काल-खंड की दृष्टि से गुरमति दर्शन की अमूल्य निधि श्री गुरु ग्रंथ साहिब के बाणीकारों में सबसे प्रथम बाणीकार भक्त शेख फरीद जी ‘शकरगंज’ हैं। वह अरबी-फारसी भाषा के भी ज्ञाता थे। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज उनकी बाणी में से एक श्लोक हमारे खान-पान की मर्यादा एवं मन की संतुष्टि के लिए अगुवाई करता है :
रुखी सुखी खाई कै ठंढा पाणी पीउ।। फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाए जीउ।। (पन्ना 1339)


इससे पहले के दो श्लोक भी भक्त शेख फरीद जी द्वारा मानवता के किए गए पथ-प्रदर्शन को और अधिक स्पष्ट कर देते हैं :
फरीदा सकर खंडु निवात गुडु माखिअुो मांझा दुधु।। सभे वसतू मिठीआं रब न पुजनि तुधु ।। 27।।फरीदा रोटी मेरी काठ की लावणु मेरी भुख।। जिना खाधी चोपड़ी घणे सहनिगे दुख।। 28।। (पन्ना 1379)


‘रुखी सूखी’ (रूखी-सुखी) वाले पावन श्लोक में ‘ठंढा पाणी’ पीने की भी प्रेरणा है। ‘रोटी मेरी काठ की’ का तात्पर्य लकड़ी के समान बनी सख्त रोटी से है, लकड़ी से बनी रोटी से नहीं। निष्कर्ष रूपी दूसरी पावन पंक्ति में ‘चोपड़ी’ रोटी खाने वाले लोगों द्वारा गहरे दुख सहन करने का तथ्य भी अंकित है।


कुछ प्रश्न जिज्ञासु के मन में उत्पन्न होने यहां पर संभावित हैं, जैसे क्या लकड़ी जैसी सख्त रोटी खाने से ही भूख मिटने का महत्व है? क्या चोपड़ी रोटी खाने वाले लोग सचमुच ही दुख सहन करते हैं? यहां वास्तविक रूप में लकड़ी जैसी सख्त रोटी खाने से भक्त शेख फरीद जी का भाव सादा खाना खाने से है जिसमें अनावश्यक रूप में घी तथा मसाले आदि का प्रवेश न हो?


चोपड़ी रोटी भी केवल जीभ के स्वाद वाले व्यंजनों की तरफ ही संकेत करती है। कहने से भाव यही है कि यदि हम केवल स्वाद की ही खातिर घी तथा मसालों आदि वाला भोजन खाने को प्रमुखता देते हैं, तो हम शारीरिक अस्वस्थता का शिकार हो जाते हैं तथा फिर शारीरिक कष्टों में उलझकर सही (आत्म) मार्ग से भटक जाते हैं। 


निष्कर्ष रूप में इसका सही प्रयोजन है कि हम जीभ के केवल स्वाद के अनावश्यक प्रभाव में न आएं। हमने शरीर को स्वस्थ तथा क्रियाशील रखने में आवश्यक भोजन तो लेना ही है लेकिन ऐसे भोजन से सावधान भी रहना है, जो हमारी शारीरिक प्रणाली में बिगाड़ पैदा करने वाला हो और साथ ही हमारे घरेलू बजट को प्रभावित करता हुआ हमारी आर्थिक स्थिति के डगमगा जाने का कारण भी बन सकता हो। हमारी जानकारी में ऐसे लोग तो हैं ही जो केवल जीभ के स्वाद में गलतान होकर अपने शारीरिक स्वास्थ्य को बिगाड़ चुके हैं, भले ही वे आर्थिक रूप से संपन्न हैं तथा घरेलू बजट का संतुलन बनाए रखने में सक्षम भी।


आज विश्व भर में मोटापे की समस्या काफी ज्यादा है। हमारा देश भी अब मोटापे की समस्या से पीड़ित होने वाले देशों में शामिल हो चुका है। दरअसल जिन लोगों के पास आवश्यकता से ज्यादा धन है वे खाते बहुत हैं और शारीरिक श्रम बिल्कुल नहीं करते। जरूरत से ज्यादा खाकर ऐसे लोग मोटापे के साथ-साथ अन्य अनेक बीमारियों को भी बुलावा देते हैं। वे मानसिक तृप्ति तथा आत्मिक संतुष्टि से बहुत दूर रहकर प्राय: दुख ही भोगते हैं। निष्कर्षत: रूखी-सूखी खाकर, ठंडा (सादा, ताजा) पानी पीकर सादा जीवन गुजारते हुए, गुरमति मार्ग के राही बन सुखी तथा प्रसन्नचित रहने की प्रेरणा है आदर्श मानव जीवन-यापन के लिए।  


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