वामन पुराण: श्रीहरि हैं इस दैत्य के द्वारपाल, पढ़ें कथा

punjabkesari.in Saturday, Jul 29, 2017 - 12:13 PM (IST)

प्रजापति कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम था दिति और दूसरी का नाम अदिति। अदिति की संतान देव यानी सुर थे और दिति की संतान थे दैत्य यानी असुर। दोनों में आपस में बनती नहीं थी। वे दोनों बात-बात पर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। देवासुर-संग्राम पुराणों में प्रसिद्ध है। देवों के गुरु थे आचार्य बृहस्पति और दैत्यों के गुरु थे आचार्य शुक्र। इन दोनों के विचारों में भिन्नता थी। देवों का राजा इंद्र था। देवगण विलासी थे।


एक बार दोनों पक्षों में घोर युद्ध हुआ। युद्ध में असुर हार गए परन्तु आचार्य शुक्र ने संजीवनी विद्या द्वारा दैत्यों को जीवित कर दिया। संजीवनी विद्या को संजीवनी-वाणी भी कहा गया है। आचार्य शुक्र की वाणी में ओजस भी था और तेजस भी। रणभूमि में हारे हुए दैत्यों में अपनी वाणी से आचार्य शुक्र ने ओजस और तेजस (साहस) का संचार कर दिया। उन्होंने मुर्दों में जान फूंक दी। वे फिर से चौगुने साहस और वीरता के साथ देवताओं से लड़े और उनको परास्त कर दिया। देवराज इंद्र अपनी नगरी छोड़ कर भाग गए। बाकी बचे देवता असुरों के भय से मारे-मारे फिरने लगे।


देवमाता अदिति अपने पुत्रों की ऐसी दशा देखकर व्यथित हो गई। उन्होंने अपनी मनोदशा अपने पति प्रजापति कश्यप को सुनाई तो प्रजापति ने कहा, ‘‘तुम्हारी व्यथा भगवान विष्णु ही दूर कर सकते हैं। तुम उन्हीं की शरण में जाओ। भृगुवंशी ब्राह्मणों ने दैत्यराज बलि को महान प्रतापी बनाकर देवों को परास्त कर दिया। अब भगवान विष्णु ही देवों के सहायक हो सकते हैं।’’


तत्पश्चात प्रजापति कश्यप ने उसे अतिथि-सत्कार की महिमा के विषय में बताया और पूछा, ‘‘तुम्हारे घर से कोई अतिथि, कोई सच्चा ब्राह्मण बिना सत्कार पाए लौट तो नहीं गया क्योंकि ऐसा माना गया है कि पूज्य अतिथि की उपेक्षा से सदा अमंगल ही होता है।’’


अदिति ने कहा, ‘‘नहीं स्वामी! ऐसा तो मेरे घर में कभी नहीं हुआ। अतिथियों का मैंने हमेशा स्वागत-सत्कार ही किया है। फिर भी न जाने क्यों इस घर को लक्ष्मी और विजयश्री छोड़ कर चली गईं। मैं क्या कारण बताऊं? आप तो प्रजापति हैं, सभी प्रजाजनों पर एक समान स्नेह करते हैं, तब मेरे पुत्रों पर भी आपको कृपा करनी चाहिए और ऐसा मार्ग बताना चाहिए जिससे वे पुन: अपना खोया हुआ वैभव प्राप्त कर सकें।’’


महर्षि कश्यप ने अदिति से कहा, ‘‘मार्ग तो एक ही है और वह है भगवान की अनन्य भक्ति। तुम उन्हीं की उपासना करो। तप करो। केवल दुग्धाहार पर रहो। ‘ओम् नमो भगवते वासुदेवाय’ इस महामंत्र का जप करो। तुम्हारे तप से भगवान विष्णु प्रसन्न होकर तुम्हें ऐसा वर देंगे कि तुम्हारे पुत्रों का सब प्रकार से कल्याण होगा और उनके सारे दुख दूर हो जाएंगे।’’


अदिति ने महर्षि के बताए अनुसार जप और तप किया। उसने अपनी बुद्धि को सारथी बनाया और जीवन-रथ में मनोयोगपूर्वक इंद्रिय रूपी घोड़ों को वश में किया। परिणामत: विष्णु प्रकट हो गए और अदिति को वरदान दिया कि वे स्वयं पुत्र के रूप में अदिति के गर्भ से जन्म लेंगे। वरदान के फलस्वरूप अदिति के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वह ‘वामन’ था। वामन के ब्रह्मतेज के सामने बड़े-बड़े ब्रह्मऋषि तेजरहित हो गए। बटुक वामन ने एक दिन सुना कि नर्मदा के तट पर भृगुकच्छ क्षेत्र में, जिसे आजकल भरोंच कहते हैं, असुरराज बलि भृगुवंशी ब्राह्मणों द्वारा अश्वमेध यज्ञ करा रहा है, वामन वहां पहुंचे। बटुक बालक को देखकर सारे ब्राह्मण और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि स्तंभित हो गए जैसे उनका तेज चला गया हो। राजा बलि ने अतिथि बटुक का यथाविधि सम्मान और पूजन किया।


उसे ऐसा लगा जैसे इस अतिथि के आगमन से उसे यज्ञ का पूरा फल मिल गया हो। उसने बटुक से कहा, ‘‘हे ब्राह्मणवर! आप यज्ञ के इस अवसर पर मुझसे अवश्य कुछ मांगने की कृपा करें। मैं उसे देकर स्वयं को कृतार्थ हुआ समझूंगा।’’


वामन बोले, ‘‘राजन! यह तुम्हारे वंश के अनुरूप ही है। महान भक्त प्रह्लाद के तुम पौत्र हो। तुम धर्मात्मा हो। जो भी वचन दोगे उससे पीछे नहीं हटोगे। मैं ब्राह्मण ब्रह्मचारी हूं। मुझे न तो स्वर्ण चाहिए, न हाथी-घोड़े। मुझे तुम्हारा राज्य भी नहीं चाहिए। संध्या पूजन करने के लिए आसन बिछाने को तीन पग भूमि मुझे दे दोगे तो मेरा यहां आना सफल हो जाएगा।’’


राजा बलि को आश्चर्य हुआ कि भला यह भी कोई दान है। यह बालक है। इसने विवेक से काम नहीं लिया। केवल थोड़ी-सी भूमि मुझसे मांगी है। उसने बटुक वामन से कहा, ‘‘ब्राह्मण देवता! आपने जो कुछ मांगा है उसे देना तो मेरे लिए बहुत सरल है। तीन पग भूमि भी दान में देने की कोई वस्तु है। आप मुझसे कुछ और मांगिए। कोई राज्य कोई नगर, गाएं, रहने के लिए वैभवशाली आश्रम। आप जो मांगेंगे मैं तुरन्त दे दूंगा।’’


वामन बोले, ‘‘असुरराज! मुझे न तो धन से मोह है न ऐश्वर्य से। मुझे तो सिर्फ प्रभु की आराधना करने के लिए तीन पग भूमि की ही आवश्यकता है।’’


राजा बलि बार-बार वामन को कुछ और अधिक मांगने के लिए कहता रहा, किंतु वामन ने साफ इंकार कर दिया। उन्होंने कहा, ‘‘आपने देना ही है तो मुझे तीन पग भूमि दान में दे दीजिए, अन्यथा मना कर दीजिए।’’


यज्ञ-स्थल में दैत्य गुरु शुक्राचार्य भी बैठे हुए थे। वह अपनी अंतर्दृष्टि से सब समझ गए। उनको लगा कि यह बटुक छल कर रहा है। यह सामान्य ब्राह्मण नहीं है। यह तो विष्णु का रूप है। उन्होंने राजा बलि को समझाया कि इस ब्राह्मण की बातों में मत फंसो, अन्यथा बुरी तरह छले जाओगे। यह ब्राह्मण तुम्हारा सर्वस्व हरण कर लेगा।
परन्तु राजा बलि ने ‘हां’ कह दिया। वह इन्कार करके पाप का भागीदार बनना नहीं चाहता था। गुरुदेव शुक्राचार्य ने फिर भी उसे सचेत किया, ‘‘सुनो, दैत्यराज बलि! यदि कोई याचक आए और बिना विचारे ही उसकी मनोवांछित मांग पूरी करने के लिए ‘हां’ कह दिया जाए तो ऐसा करना धन की अपर्कीत है। सही समय पर दिया हुआ वचन भंग करना अवश्य अपयश का कारण है, परन्तु कभी-कभी असत्य भी अवांछनीय नहीं माना गया है।’’


परन्तु आचार्य शुक्र के समझाने का राजा बलि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह तो सत्य-प्रतिज्ञ था। विनयपूर्वक उसने आचार्य शुक्र से कहा, ‘‘आपका कथन सत्य है। आपने गृहस्थ धर्म समझाया इसके लिए मैं आपका आभारी हूं परन्तु मैं संसार के प्रथम सत्याग्रही प्रह्लाद का पौत्र सत्य से डरने वाला नहीं हूं। मैंने जो वचन दे दिया सो दे दिया। अब मैं पीछे नहीं हटूंगा चाहे मेरा सर्वस्व ही क्यों न चला जाए। धन-दौलत और राज्य भी आखिर है क्या? मनुष्य साथ में क्या ले जाएगा? कोई आकर अतिथि के रूप में मेरे प्राणों की याचना भी करे और देना भी स्वीकार कर लिया जाए तो उससे पीछे नहीं हटा जा सकता। दिया हुआ वचन मैं भंग कैसे करूं, मैं जानता हूं कि मैं आपके आदेश की अवज्ञा कर रहा हूं जो उचित नहीं परन्तु सत्य का पालन करना भी तो आपने ही सिखाया है। सत्य-पालन को ही मैं सबसे बड़ा धर्म मानता हूं। मांगने वाले को सब कुछ दे देने पर भी देने वाला दरिद्र हो जाए तो वह दरिद्रता ही उसके लिए सबसे बड़ी सम्पन्नता है, अत: मैं इस तेजस्वी बटुक को इसका मांगा हुआ अवश्य दूंगा। मैं इसे ‘न’ कहने वाला नहीं। ’’


शुक्राचार्य रुष्ट होकर चुप हो गए, पर मन-ही-मन शिष्य के सत्य-प्रतिज्ञ होने पर प्रसन्न भी हुए। शुक्राचार्य की बात न मानकर जब राजा बलि को सत्य पर दृढ़ देखा तो वामन ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘राजन! तुम्हारे कुल में सभी उदार और दानी हुए हैं। अब तुम मुझे मेरी मांगी हुई तीन पग भूमि का विधिपूर्वक दान करो।’’


बटुक की इस याचना को सुन राजा बलि राजा, ‘‘ब्रह्मचारी! तुम अभी बालक मात्र हो। मुझसे यह क्या छोटी-सी चीज मांग रहे हो। मैं चाहूं तो सारी पृथ्वी का दान कर सकता हूं, तुम मुझसे ऐसा दान मांगो जिससे सुखपूर्वक तुम्हारी जीविका चल सके।’’


परन्तु वामन को तो सिर्फ तीन पग भूमि ही चाहिए थी। वह बोले, ‘‘मुझे तो सिर्फ तीन पग भूमि ही चाहिए। तुम मुझे वह भूमि देने का संकल्प कर भी चुके हो। अब बताओ भूमि कहां दे रहे हो?’’


‘‘यहीं भी ले लीजिए विप्रवर!’’ राजा बलि बोला, ‘‘जिस स्थान पर आप अपना पैर रख देंगे वही भूमि आपकी हो जाएगी।’’


तब बटुक वामन ने अपने असली स्वरूप का प्रदर्शन किया। देखते ही-देखते उसका शरीर इतना विशाल हो गया कि सिर्फ धड़ के कुछ हिस्से को छोड़ उसका शेष शरीर बलि और वहां उपस्थित अन्य व्यक्तियों की नजरों से ओझल हो गया।


वामन का सिर अनंत आकाश में और पैर रसातल (पाताल लोक) में पहुंच गए। पहले ही पग में उसने समस्त पाताल लोक को लांघ लिया। वामन का दूसरा पग सातों लोकों को लांघता हुआ सत्य लोक तक पहुंच गया। राजा बलि का राज्य स्वर्गलोक तक ही तो था। तीसरे पग को रखने के लिए जब जगह न मिली तो वामन ने बलि से पूछा, ‘‘राजन! तुम्हारे राज्य की सीमाएं तो समाप्त हो गईं। अब बताओ मैं अपना तीसरा पग कहां रखूं?’’


राजा बलि ने एक क्षण भी विलंब न किया। उन्होंने अपना मुकुट उतारा और दोनों हाथ जोड़ कर बटुक नारायण के आगे नतमस्तक होकर कहा, ‘‘आप अपना यह पैर मेरे सिर पर रख लीजिए।’’


वामन ने अपना चरण उसके सिर पर रख दिया। बलि धन्य हो गया। उसी समय बैकुंठ लोक से आकर प्रह्लाद वहां उपस्थित हो गए और उन्होंने अपने पौत्र पर प्रसन्न होकर कहा, ‘‘वत्स तू धन्य है। विश्वात्मका नारायण श्रीहरि ने स्वयं प्रकट होकर तेरे मस्तक पर अपना चरण रख दिया है।’’ 


तब बटुक नारायण ने सर्वस्व दानी राजा बलि को वरदान देते  हुए कहा, ‘‘हे दानवीर! तुमने मेरी दुर्जय माता को भी जीत लिया। गुरु के तिरस्कार और शाप को भी तुमने सहन कर लिया परन्तु सत्य का त्याग नहीं किया। मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हूं। जो स्थान देवताओं को भी दुर्लभ है, वह मैं तुम्हें देता हूं। तुम आगामी मन्वंतर में इंद्र होगे और मैं सब प्रकार से तुम्हारी सहायता करूंगा। अब तुम पाताल लोक में जाकर निवास करो। जो कोई भी व्यक्ति तुम्हारी आशा के विरुद्ध कुछ भी करेगा उसे मैं अपने सुदर्शन चक्र से नष्ट कर दूंगा। तुम मुझे वहां अपने द्वार पर नित्य प्रति इसी रूप में देखोगे। मैं तुम्हारा द्वारपाल बनकर रहूंगा।’’


इस प्रकार इंद्र को पुन: स्वर्गलोक प्राप्त हो गया और देवता निर्भय होकर वहां रहने लगे। माता अदिति की तपस्या पूर्ण हुई। सभी धन्य हो गए। अदिति, इंद्र और स्वयं राजा बलि भी। 


     
 


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