शिवजी का तांडव : भयंकर भी, कल्याणकारी भी

punjabkesari.in Thursday, May 11, 2017 - 01:18 PM (IST)

संस्कृत साहित्य विश्व का प्राचीनतम एवं समृद्धतम साहित्य है। इस साहित्य में ऋग्वेद से लेकर ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद ग्रंथ, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति ग्रंथ, अर्थ शास्त्र, नीति शास्त्र, काम शास्त्र, ज्योतिष, इतिहास, विज्ञान, गणित, वैद्यक, स्थापत्यकला, वास्तुकला, व्याकरण, निरूक्त, छंद तथा नाट्य शास्त्र आदि विपुल साहित्य उपलब्ध है। ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित नाटय वेद की प्रतिष्ठापना के पहले से ही आदिनट एवं आदिनटी के रूप में भगवान शंकर तथा पार्वती की प्रसिद्धि रही है। आचार्य भरत के अनुरोध पर ब्रह्मा जी ने ऋग्वेद से पाठ्य अर्थात संवाद, यजुर्वेद से अभिनय, सामवेद से गान और अथर्ववेद से रस-वृत्ति ग्रहण कर नाट्यवेद की रचना की थी। परंतु बहुत प्रयास करने पर भी भरत निर्देशित वह नाटक सफल नहीं हो सका। कारण यह कि उसमें कौशिकी वृति का सर्वथा अभाव था। नटराज शिव को इस रहस्य का पता पहले से ही था। अत: अपने अभिनय को प्रभावपूर्ण बनाने के उद्देश्य से कौशिकी वृत्ति के सफल निर्वाह के लिए उन्होंने पार्वती की सहायता ली थी-


रुद्रेणेदमुमाकृतव्यतिकरे स्वांगे विभक्तं द्विधा। —मालविकाग्रिमित्र 1.4 पूर्वार्ध 


अर्थात आकर्षक अभिनय के लिए भगवान शिव ने नाट्य के दो भाग कर दिए- तांडव और लास्य। नटेश के रूप में तो वह ‘तांडव’  में अप्रतिम थे ही, पार्वती को लास्य का भार सौंप कर उन्होंने ‘कौशिकी’ की अनुपम योजना भी कर दी। फिर तो कठोरता तथा कोमलता के सफल मिलन से अभिनय को अति उत्कृष्ट होना ही था। उस रसमय प्रदर्शन का अवलोकन कर नाट्याचार्य भरत को अलौकिक आनंदानुभूति हुई थी। अपने नाट्य प्रदर्शन की अपेक्षित सफलता के लिए उन्होंने विनम्रतापूर्वक उस प्रसंग की प्रेरक चर्चा ब्रह्मा जी से की थी और शिव के रूचिर नाट्यकर्म से प्रभावित होकर ही ब्रह्मा जी ने ‘कैशिकीमपि योजय’-(नाट्यशास्त्र 1.42 उतरार्ध) का निर्देश भरतमुनि की समस्या के समाधान के लिए किया था। इस वृत्ति के समायोजन से नाट्य सफलतापूर्वक अभिनीत होने लगा। इससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान शंकर ही नाट्य परम्परा के आदि प्रवर्तक हैं।


भगवान त्रिपुरान्तक शंकर का अभिनय-तांडव अपने लिए जहां भयंकर है, वहीं परम कल्याणकारी भी है। वह ‘शिव’ अर्थात कल्याण स्वरूप हैं, अत: दूसरों का अहित कैसे करेंगे, इसी से वह तांडव करते समय अपने चरणों के स्वच्छन्द विक्षेप से पृथ्वी को बचाते हैं, ग्रह मंडल क्षतिग्रस्त न हो जाए, इसका ध्यान रखकर अपनी भुजाओं को सीमित कर लेते हैं। इसी प्रकार त्रिनेत्र को एक स्थान पर इसलिए केंद्रित नहीं करते कि सारे पदार्थ भस्म न हो जाएं। वस्तुत: वह तो अभिनय के आधारों-रंगपीठ पृथ्वी, रंगमंडप (अंतरिक्ष), रंगस्थ समाज (चराचर जीव समुदाय) की रक्षा और अभ्युदय के लिए तांडव जन्य कष्ट झेलते हैं।


‘लास्य’ से ‘तांडव’ भी मनोहर बन जाता है, शक्ति संयुक्त शिव का प्रकाश पाप-शाप सबका अंत कर देता है। इसमें समरस अखंड आनंद की प्राप्ति होने लगती है। नाटक का प्रयोजन ही है कर्तव्य बोध कराना, रुचि परिष्कार करना, साहस बढ़ाना, अज्ञानियों को ज्ञानवान बनाना, ज्ञानियों को ज्ञानवर्धन करना, आर्तजनों का दुख दूर करना, श्रांत-क्लान्त को नई स्फूर्ति प्रदान करना, शोक-संतप्तों को धैर्य से काम लेने की प्रेरणा देना, यश आयु को बढ़ाना, बुद्धि वैभव को विकसित करना तथा समस्त लोकों का सभी दृष्टियों से कल्याण करना जो भगवान शंकर के स्वरूप और स्वभाव का परिचायक है। वस्तुत: शिव का प्रेक्षागृह ही ऐसा विलक्षण है कि वहां जाने पर किसी भी प्रकार का शोक-संताप नहीं रह जाता।


सच तो यह है कि भगवान शिव के रंगमंच पर पहुंचते ही आनंदमय वातावरण के र्निभय हो जाने से सभी विघ्न-बाधाएं स्वत: दूर हो जाती हैं। इस प्रकार विरेचन सिद्धांत का मूल भी शिव के अभिनय में ही विद्यमान है। यद्यपि भगवान शंकर नाट्य परंपरा के आदि प्रवर्तक हैं, इसलिए नाट्य मंडप में भी सर्वप्रथम भूतगणों के साथ उन्हीं की स्थापना का विधान किया गया। 


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