यहां कर्ण करता था सूर्य पूजन, बार-बार दर्शन करने की होती है इच्छा

punjabkesari.in Sunday, May 28, 2017 - 11:13 AM (IST)

हिमालय की तलहटी में स्थित सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ ‘देवीपाटन’ अनेक प्राचीन धार्मिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक तथ्यों को अपने में समेटे हुए है। गुरु गोरखनाथ, गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य एवं सम्राट विक्रमादित्य मालवपरमार (57 ई.पू. विक्रम संवत के प्रवर्तक) के अग्रज भर्तृहरि के गुरु ने यहां मंदिर परिसर में एक ‘मढ़ी’ का निर्माण करवाया था। महाभारत काल में (5114 वर्ष पूर्व) अंग प्रदेश का राजा कर्ण (जो कौरव-दुर्योधन का मित्र था) यहां स्थित सूर्यकुंड में स्नान कर भगवान सूर्यदेव की आराधना करता था। 


उत्तर प्रदेश के उत्तरी भाग में हिमालय के दक्षिणी हिस्से में जनपद गोंडा से सटे जिले बलरामपुर के तुलसीपुर क्षेत्र में स्थित सुख्यात शक्तिपीठ ‘देवीपाटन मंदिर’ में देश-विदेश के श्रद्धालु आस्थावान सहस्रों की संख्या में ‘माता पाटेश्वरी (पाटनदेवी)’ के दर्शन के लिए पहुंचते हैं।


सम्राट विक्रमादित्य ने उक्त मंदिर का जीर्णोद्धार व पुनरुद्धार किया था। मान्यता है कि त्रेतायुग के रामायणकाल में जगतमाता देवी सीता का पातालगमन देवीपाटन में ही हुआ था।


मान्यता है कि इस मंदिर में गर्भगृह से लेकर पाताल तक एक सुरंग बनी है और गर्भगृह के शीर्ष पर अनेक हीरे-मोती जड़े हुए हैं। मंदिर में ताम्रपत्र पर दुर्गासप्तशती अंकित है। मंदिर में देवी पाटेश्वरी (देवी पाटन) के अलावा नवरात्र में जिनकी उपासना आवश्यक रूप से होती है- कूषमांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, शैलपुत्री, चंद्रघंटा, ब्रह्मचारिणी तथा सिद्धिदात्री स्वरूपों की प्रतिमाएं विराजमान हैं।


पौराणिक मान्यता प्राप्त इतिहास के अनुसार कथा तथ्य इस प्रकार है : दक्ष प्रजापति के यज्ञ स्थल पर उनकी सुपुत्री सती अवमानना तथा अपमान के विरोध में यज्ञ कुंड में सदेह प्रवेश कर योग अग्नि से ‘सती’ हो गई तो वीरभद्र व मां काली ने वहां आकर सब कुछ तहस-नहस कर दिया, क्रोधित शिव शंकर सती के शव को कंधे पर लेकर तांडव-नृत्य करने लगे। ब्रह्मांड कांपने लगा, प्रलय के आसार हो गए, तब सब कुछ बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से शव के अनेक टुकड़े किए, जिनमें एक भाग यहां भी गिरा। यहां पर देवी सती का बायां स्कंध पाटम्बर सहित गिरा था। इससे यह शक्तिपीठ हुआ देवी हुईं ‘पाटेश्वरी’ जिन्हें देवीपाटन भी कहते हैं।


यहां पूजा-अर्चना में नारियल, चुनरी, लावा, नथुनी, सिंदूर, काजल मांग टीका, चूड़ी बिछिया, पायल आदि अॢपत की जाती है। शारदीय नवरात्र एवं बासंतीय नवरात्र के अलावा  मंगलवार, शनिवार को भी यहां दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। मंदिर भव्य व आकर्षक है। एक बार जाने पर दोबारा जाने की भी स्वत: इच्छा होती है।


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