राहू-केतु के नागपाश से मुक्त होकर ये लोग समय को कर सकते हैं वश में

punjabkesari.in Saturday, Mar 03, 2018 - 02:21 PM (IST)

वासना के अनुसार जन्म होता है। वासना की परिणति वासना से उत्पन्न होने वाले काम-क्रोधादि विकारों के अतिरेक के कारण होती है। विषय में तारतम्यता होने पर विषय प्राप्ति की इच्छा होती है। विषय उपलब्ध न होने पर या उसमें रुकावटें आने पर गुस्से का निर्माण होता है। गुस्से के कारण मन विचारशून्यता से परिवर्तित होता है। इसके उपरांत बुद्धिनाश होकर मनुष्यत्व और उसका विवेक खत्म हो जाता है। तीव्र वासना के परिणामस्वरूप जब मनुष्य मनुष्यत्व खो बैठता है, तब उसे सर्पयोनि प्राप्त होती है। अर्थात वह जीवात्मा सर्पयोनि को प्राप्त हो जाती है और सर्प बन जाती है।


महाभारत में इस संबंध का उदाहरण स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। ब्रह्मदेव से सप्तऋषि निर्मित हुए। उनमें मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप ऋषि थे। कश्यप की दो पत्नियां थीं एक का नाम कद्रू तथा दूसरी का विनीता था। कद्रू को संतान के रूप में सर्प हुए और विनीता को गरुड़ के रूप में पुत्र प्राप्त हुआ। इस प्रकार मनुष्य और नागयोनि का नजदीकी और घनिष्ठ संबंध है। सत्ताइस नक्षत्रों में से रोहिणी एवं मार्गशीर्ष नक्षत्रों की योनियां भी सर्प योनियां ही मानी गई हैं इसलिए शास्त्रीय दृष्टि से मानव तथा सर्प योनि की उत्पत्ति में समानता नजर आती है। योग शास्त्र के अनुसार मानव शरीर में रची-बसी कुंडलिनी शक्ति के जागरण से ही देह की साध्यता साध्य होती है। इस विषय का विश्लेषण प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर जी महाराज ने अपनी ज्ञानेश्वरी में काफी विस्तार से किया है। कुंडली का इस सत्र में विशेष महत्व होता है।


मूलाधार चक्र में पीठ की रीढ़ के पास प्रारंभ में कुंडलिनी का आवास है जो सर्प की भांति कुंडली मारे बैठी है। कुंडलिनी के जागरण से ही मनुष्य को ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। यह कुंडलिनी-जागृति का मूल सिद्धांत है। मनुष्य को प्राप्त होने वाला मनुष्यत्व कुंडलिनी की ही देन है। मनुष्य की वैज्ञानिक पूर्णता इस कुंडलिनी के ज्ञान से ही होती है इसलिए कुंडलिनी या सर्प दोनों अवस्थाएं एक समान हैं। मानव की उत्पत्ति कुंडलिनी से होती है इसलिए कुंडलिनी एवं सर्प दोनों एक ही हैं। यह बात ध्यान में रख कर ही हमारे पूर्वजों ने सर्पक्रिया का विधान बनाया है।


सर्प की हत्या स्वयं करना या किसी दूसरे से करवाना पापकर्म माना गया है। इस पाप के कारण वंश-विच्छेद होता है। पुत्रोत्पति के साथ इस तरह की सर्प हत्याओं का संबंध रहता है। इस पाप से मुक्ति पाने के लिए नागबलि विधि का विधान बताया गया है। जमीन में जहां धन गड़ा होता है, वहां सर्प का होना सैंकड़ों मनुष्यों ने अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखा होगा जिसके द्वारा यह सम्पत्ति जमीन में गाड़ी गई होगी उस जीवात्मा का उस सम्पत्ति से तारतम्य हुआ होगा। वह जीवात्मा सर्प के रूप में वहां रहती है। इस जीवात्मा को सर्पयोनि मिलने का कारण देखें। ‘वासुकि’ नाग के सिर पर पृथ्वी है, यह बात पुराणों में बताई गई है। वैज्ञानिक अर्थ से सांप यानी ‘वासुकि’। ‘वासुकि’ की कुंडलिनी है। कुंडलिनी के सिर पर पृथ्वी जड़स्वरूप न होकर ‘मैं’ पन का आजीव रूप पृथ्वी ही है। जो जीवात्मा सर्प होती है उसकी सभी भावनाएं भौतिक रहती हैं। भौतिक वासनाएं तीव्र होने पर वह मूल स्वरूप यानी कुंडलिनी-सर्पयोनि में जाती है। यह अनुभव कई व्यक्तियों ने किया है। नागबलि विधान करने से नागहत्या के पाप से मुक्ति मिलती है तथा जीवात्मा को सद्गति प्राप्त होती है।


श्री रामचंद्र जी का चौदह वर्ष तक वनवास में साथ देने वाले लक्ष्मण जी शेषनाग के अवतार थे। शेषनाग की सहायता के बिना राम-सीता का वनवास अधूरा एवं असुरक्षित ही होता। रावण संहार के कार्य में लक्ष्मण जी का योगदान भुलाया नहीं जा सकता।
मथुरा के श्री कृष्ण को गोकुल प्रवास के दौरान ऊपर से तूफानी बारिश एवं नीचे उफनती यमुना से छतरी बनकर सुरक्षा प्रदान करने वाले शेषनाग का इतिहास भी भुलाया नहीं जा सकता। उसी तरह कालिया नाग के मर्दन के पश्चात ही ग्वालों का कन्हैया कृष्ण बना-यह भी संस्मरणीय बात है।


सम्पूर्ण विश्व के संचालक भगवान विष्णु स्वयं शेषनाग पर ही आसीन होते हैं और स्वयं शेषनाग छत्र बनकर उन्हें छाया प्रदान करते हैं। यह भुजंग शयन की कथा घर-घर में प्रचलित है।


भगवान शिव देवों के देव महादेव हैं। ज्ञान और मोक्ष का प्रवेश देने का काम उनके ही अधीन है। सम्पूर्ण तंत्रशास्त्र पर महादेव भोले शंकर का अधिकार है। भगवान भोलेनाथ का शरीर नागों से लिपटा हुआ है। नाग के बिना शिवलिंग की कल्पना भी नहीं की जा सकती।


जैन सम्प्रदाय के सर्वाधिक लोकप्रिय 23वें तीर्थंकर, जिनकी दिव्य चेतना-प्रेरणा आज भी अस्तित्व में है, शीघ्र प्रसन्न होने वाले भगवान श्री पाश्र्वनाथ जी का नाम नागकुमार धरणेंद्र के साथ ही लिया जाता है। उनके पूजन के साथ ही धरणेंद्र भी पूजे जाते हैं। फनधारी नाग का शिरछत्र ही पाश्र्वनाथ की पहचान है।


आखिर नाग और सर्प का इतना महत्व क्यों है? हिंदू धर्म शास्त्र में नाग जाग्रत कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है। दूसरे अर्थ में नाग ‘काल स्वरूप’ है। नाग के मस्तक का संबंध राहू के साथ जुड़ा हुआ है। राहू और केतु नाग के सूक्ष्म स्वरूप हैं और सूक्ष्म विश्व के साथ उनका गहरा संबंध है। जब  सभी ग्रह राहू और केतु के जाल में फंस जाते हैं तब कालसर्प योग बनता है। ‘काल’ यानी राहू एवं ‘सर्प’ यानी केतु! राहू-केतु के कारण बनने वाला योग ही कालसर्प योग है।


नाग संपत्ति का प्रतीक है। दुनिया की तमाम धन-सम्पत्ति पर नाग का ही आधिपत्य है। जो धन सम्पत्ति की लालसा से मुक्त होते हैं, वीतरागी होते हैं, उनकी कुंडलिनी जाग्रत होकर उन्हें इस नागपाश से पूर्णतया मुक्त कर देती है। राहू-केतु के नागपाश से केवल महापुरुष ही मुक्त होकर समय को अपने वश में रख सकते हैं।


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