कुंडली के द्वादश भावों में शनि, आपके घर पर क्या डाल रहा है प्रभाव

punjabkesari.in Friday, Feb 24, 2017 - 08:41 AM (IST)

प्रत्येक जन्मकुंडली में 12 खाने होते हैं, जिन्हें ‘भाव’ या ‘घर’ कहते हैं। अलग-अलग जन्मकुंडलियों में अलग-अलग राशियां होती हैं परन्तु लग्र में कोई भी ग्रह पड़ा हो तो वह सदा प्रथम भाव में ही रहेगा। द्वादश भावों में शनि के प्रभाव के विषय में विस्तार से जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि कौन से भाव में बैठ कर शनि ग्रह क्या प्रभाव देता है :

 

प्रथम भाव में : जन्म के समय यदि शनि प्रथम भाव में अपने उच्च, मूल त्रिकोण या स्वराशि का हो तो जातक देश या नगर का अधिपति होता है। यदि अन्य राशि का हो तो व्याधियुत देह वाला होता है। यदि लग्र में शनि की उपस्थिति के साथ-साथ तुला, धनु या मीन राशि स्थित हो तो जातक समृद्ध, वैभवयुक्त, धनी, दीर्घायु तथा राजा के सदृश सुखी होता है। यदि अन्य राशि में हो तो जातक रोगी, क्लेश करने वाला और बेरोजगार होता है। मेष, सिंह में स्थित शनि से जातक स्वभाव से परोपकारी होता है। यदि प्रथम भाव में शनि के साथ मिथुन राशि हो तो जातक के लिए यह शनि द्विभार्या और संतानविहीन का योग देता है। कर्क, वृश्चिक राशि होने पर व्यवहार में मधुरता, तर्क परायणता, अधिकारी वर्ग का प्रिय और सुखपूर्ण जीवन का संयोग देता है। प्रथम भाव में शनि के साथ वृष, कन्या, मकर और कुंभ राशि हो तो आजीविका में उच्च अभिलाषा तथा उच्च पद की प्राप्ति भी कराता है। नौकरी को उचित मानने वाले जातक सदैव शनि से प्रभावित होते हैं। 


द्वितीय भाव में : ऐसा जातक दूसरे व्यक्तियों के घर में रहने वाला, अपने परिवार का त्याग कर विदेश में जाकर सुखी एवं सम्मानित तथा धन-वाहन से युक्त होता है। कुछ ज्योतिषाचार्यों के मतानुसार ऐसे योग वाले जातकों का दो विवाह का योग भी बनता है। यदि शनि शुभ प्रभावों से युक्त हो तो जातक को उत्तम पैतृक सम्पत्ति भी मिलती है तथा वह स्वयं उपार्जित सम्पत्ति से अत्यधिक सुखी होता है। ऐसा जातक धनवान, न्यायप्रिय, दीर्घायु होता है।


तृतीय भाव में : तृतीय भाव में शनि हो तो जातक पराक्रमी, राजा से माननीय, धन-वाहन से सुखी, गांव का प्रमुख, बहुतों को आश्रय देने वाला होता है। कुछ विद्वानों के अनुसार तृतीय भाव में शनि होने पर जातक दुखी, उदार, बुद्धिमान होता है। ऐसे जातक को पत्नी सुख तो मिलता है परन्तु घोर परिश्रम करने के बाद मिलने वाली असफलता उसे सदैव परेशान रखती है। जातक के भाग्योदय में बाधाएं आती रहती हैं। भाइयों से संबंध मधुर नहीं रहते।  वह धर्म व धन की परवाह नहीं करता । घर में इसे आराम नहीं मिलता।


चतुर्थ भाव में : जातक वात-पित्त से निर्बल, दुष्ट स्वभाव का, आलसी, झगड़ा करने वाला, कमजोर और गंदे स्थान व गंदे घर में निवास करने वाला होता है। जन्मकुंडली में चतुर्थ भाव सुख का स्थान माना जाता है। अत: यहां शनि की उपस्थिति जातक के सुख को नष्ट करती है जिस कारण वह सदा दुखी व चिंतित रहता है। उसे कभी भी सुख नहीं मिलता क्योंकि ऐसा शनि जातक को पैतृक सम्पत्ति व आवास से भी अलग करता है। उसे अनेकों प्रकार की हानियां उठानी पड़ती हैं।


पंचम भाव में : जातक दुर्बल व निर्बल, सदैव रोग से पीड़ित रहता है। जातक व्यर्थ भ्रमण करता है अथवा उसकी बुद्धि भ्रमित रहती है। यदि शनि स्वगृही, उच्चस्थ अथवा मित्रगृही हो तो एक पुत्र संतान का लाभ मिलता है क्योंकि पंचम भाव ‘पुत्र का स्थान’ भी है।


षष्ठम भाव में : जातक अत्यधिक बलवान एवं शत्रुओं को जीतने वाला, स्वस्थ, पुष्ट शरीर तथा प्रबल जठराग्रि वाला, श्रेष्ठ लोगों का मित्र के साथ-साथ गुरु और ब्राह्मण की आज्ञा का पालन करने वाला होता है। षष्ठम भाव में अशुभ शनि विद्यमान होने पर जातक कंठविकार, खांसी, श्वास नलिका तथा फेफड़ों में विकार, पित्ताशय व यकृत में विकार से युक्त होता है। यदि उच्च राशिस्थ शनि षष्ठम भाव में स्थित हो तो जातक प्रसन्न चित्त, दीर्घायु तथा सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला होता है। ऐसे जातक को बचपन में ज्यादा चोट-चपेट लगती रहती है तथा वह व्रणयुक्त होता है। यदि शनि अष्टमेश होकर षष्ठम भाव में स्थित हो तो जातक को वातशूल रोग होता है। इसी प्रकार मिथुन, कन्या, धनु अथवा मीन राशिस्थ शनि षष्ठम भाव में स्थित हो तो, जातक दमा या टी.बी. अथवा संधिवात रोग से युक्त होता है।


सप्तम भाव में : जातक आंव रोग से निर्बल, पत्नी द्वारा अपमानित और अन्न, वस्त्र तथा अभाव से पीड़ित होता है। जातक की पत्नी सदैव रोगिणी रहती है। जातक स्वयं परस्त्रीगामी और कपटी होता है। यदि सप्तम भाव में शनि उच्च राशिस्थ अथवा स्वराशि का होकर विद्यमान हो तो जातक अत्यधिक कामुक प्रवृत्ति का होता है।


अष्टम भाव में : जातक कृशकाय, दाद खुजली आदि से ग्रसित, क्षुद्र स्वभाव का कंजूस एवं लोभी होता है।  उसे जीवन भर कोई न कोई रोग लगा रहता है। सप्तम भाव में नीच राशिस्थ शनि तथा मंगल की युति जातक को गुप्त रोग से पीड़ित रखती है। अष्टम भावस्थ राहु एवं सूर्य तथा शनि की युति दमा अथवा बवासीर रोग से जातक को भयानक कष्ट देती रहती है।


नवम भाव में: जातक धर्म-कर्म को मानने वाला, दुर्बल शरीर वाला, बुद्धिहीन लेकिन देखने में सुंदर होता है। नवम भाव में दोषयुक्त शनि होने पर जातक धर्म-धन, बंधुसुख, संतान व आय से वंचित होता है। ऐसा जातक स्वभाव से चालाक, गुप्तरोग से पीड़ित, घर से बाहर रहने वाला, धर्मात्मा, साहसी होता है। यदि शनि उच्च राशिस्थ अथवा शुभ राशिस्थ हो तो जातक अनेक शास्त्रों का ज्ञान रखने वाला तथा वैभवशाली जीवन व्यतीत करता है। 


दशम भाव में : दशम भाव में शनि हो तो जातक  राजा का मंत्री, धन-धान्य सम्पन्न, सर्वथा सुखी, समस्त कलाओं का ज्ञाता, गांव का प्रमुख, देश का प्रधान, चतुर तथा बुद्धिमान होता है। ऐसा जातक अपने बाहुबल पर विश्वास करने वाला, ज्योतिषी, संगीत प्रेमी, गूढ़ शास्त्रों का अध्ययनकर्ता तथा बड़े उद्योगों का संचालन करने वाला होता है। यदि इस भाव में अशुभ अथवा नीच राशिस्थ शनि स्थित हो तो जातक जांघ अथवा जननेन्द्रिय के रोग से पीड़ित रहता है। इस भाव में शनि-मंगल की युति होने पर जातक प्रमेह अथवा मधुमेह रोग से ग्रसित होता है।


एकादश भाव में : एकादश भाव में शनि स्थित हो तो जातक श्याम वर्ण का, धनवान, शूरवीर, दीर्घायु, मित्रों से लाभ पाने वाला, विचारशील, महाभाग्यवान, काला घोड़ा, इंद्रनीलरत्न, हाथी दांत तथा अन्यान्य बहुमूल्य वस्तुएं प्राप्त करने वाला होता है। ऐसा जातक दीर्घायु, निरोग तथा परिवार से परिपूर्ण, व्यवसायी, सभी विद्याओं में निपुण, प्रपंच रहित, मृदुभाषी तथा कन्याप्रज्ञा होता है। एकादश भाव में दूषित अथवा अशुभ शनि स्थित होने पर जातक की स्त्री को बंध्या बनाता है अथवा संतान देर से उत्पन्न कराता है या होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाती है।


द्वादश भाव में : द्वादश भाव में शनि हो तो जातक बहुत अपव्ययी,  निर्धन, बार-बार अपमानित होने वाला, धन-हानि से युक्त, मंदबुद्धि, मूर्ख, पापी, नीच कर्म करने वाला, क्रूर कर्मों में रुचि रखने वाला, आलसी, हीन शरीर तथा सब सुखों से रहित होता है। ऐसा जातक नेत्र पीड़ा से ग्रसित तथा व्यवसाय में हानि उठाने वाला, घर में प्रसन्न न रहने वाला होता है।


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