समाज के र्निमाण के लिए अच्छे संस्कार अनिवार्य
punjabkesari.in Saturday, Nov 18, 2017 - 01:24 PM (IST)
जिस प्रकार के सद्गुणों की अपेक्षा माता-पिता अपनी संतान से करते हैं, उनका बीजारोपण वास्तव में बाल्यकाल में होता है। श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों एवं श्रेष्ठ आचरण से युक्त अच्छा साहित्य पढने का स्वभाव एवं अच्छी संगति से अच्छे एवं श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण संभव होता है। मनसंहिता में अभिवादन शीलता एवं बड़ों का सम्मान करने का प्रत्यक्ष प्रभाव बतलाया गया है। इससे मनुष्य को जीवन में आयु, यश, बुद्धि एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति का साधन बतलाया गया है। देवता, ब्राह्मïण, गुरुजन एवं विद्वान का पूजन एवं सम्मान सात्विक तप कहलाता है।
‘‘प्रात:काल उठि के रघुनाथा। मात-पिता गुर नाविंह माथा।’’
भगवान श्री राम अपने बाल्यकाल में प्रात:काल उठ कर अपने माता-पिता और गुरु को प्रणाम करके अपनी दिनचर्या का प्रारंभ करते हैं।
हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु जी से द्वेष रखता था परन्तु उसके पुत्र प्रह्लाद का लालन-पालन नारद ऋषि के आश्रम में हुआ, जिससे वह भगवान श्री हरि जी का परमभक्त बना। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन और विरोचन पुत्र बलि के बारे में कौन नहीं जानता जिसके द्वार पर स्वयं भगवान नारायण वामन रूप में पधारे और उसका कल्याण किया। प्रह्लाद और बलि चाहे दैत्यकुल में उत्पन्न हुए लेकिन उन जैसी प्रभु भक्ति का उदाहरण अन्यत्र मिलना संभव नहीं।
रावण ब्रह्मा ऋषि पुलस्त्य का पौत्र था। पुलस्त्य ब्रह्मा जी के मानस पुत्र माने गए हैं परंतु बाल्यकाल में रावण को राक्षस कुल से उसकी माता कैकसी द्वारा ऐसे संस्कार दिए गए कि ब्राह्माण कुल में पैदा होकर भी रावण को दैत्यकुल से संबोधित किया जाने लगा।
कुरुवंश से कौरव व पांडव उत्पन्न हुए। कौरवों के नाश के लिए उत्तरदायी दुर्योधन के मन में बाल्यकाल से ही उसके मामा शकुनि ने पांडवों के प्रति इस प्रकार के ईष्र्या के बीज बोए वह जीवन भर अपनी इस विषैली मानसिकता से मुक्ति न पा सका। जिस प्रकार शुद्ध वायु के लिए वृक्षों के पास जाना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार मन, बुद्धि की शुद्धि के लिए धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय आवश्यक है।
मार्कंडेय मुनि द्वारा सभी ज्ञानीजनों को प्रणाम करने के व्रत के कारण उन्होंने अपनी 16 वर्ष की अल्पायु को चिरंजीवी होने में परिवर्तित किया। बाल्यकाल का समय जीवन का सर्वाधिक उपयुक्त समय है, सद्गुण रूपी बीजों के अंकुरित होने का इस समय में सही मार्गदर्शन का प्राप्त होना आवश्यक है। भगवान श्री राम ने अपना बाल्यकाल गुरुकुल में महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम में तथा भगवान श्री कृष्ण ने सांदीपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर गुरु भक्ति एवं सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।
आज समाज में जो कुछ भी सुखद अथवा असुखद घटित होता है, इन सब में मानवीय संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। आधुनिकता के इस युग में हम चाहे कितना भी आगे क्यों न निकल जाएं लेकिन परिवार, समाज तथा राष्ट्र को सदैव शुभ संस्कारों की आवश्यकता पड़ती रहेगी ताकि मानव से मानव के जुड़ाव की प्रक्रिया सतत् निरंतर चलती रहे। संतान की माता-पिता के प्रति, एक नागरिक के राष्ट्र के प्रति कर्तव्य परायणता, नि:स्वार्थ भाव से समाज के कल्याण हेतु तत्पर रहना, ये सब सत्य मानवीय समाज के निर्माण की प्रक्रिया में अत्यधिक महत्वपूर्ण अंग हैं। युक्त आहार, विहार, कर्मों में यथा योग्य चेष्टा तथा युक्त निंद्रा जीवन को योगपूर्ण बनाते हैं। मनुष्य का आचार, विचार, आहार, व्यवहार संतुलित बनाने में ज्ञान पथ प्रदर्शक होता है।
बाल्यावस्था में अबोध होने के कारण युवावस्था में व्यस्तता के कारण और बुढ़ापे में शारीरिक क्षमता के शिथिल होने के कारण हम जीवन भर इन सद्गुणों के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। वास्तव में श्रेष्ठ मानवीय आचरण का ज्ञान शिक्षा का अंग है। अगर बाल्यावस्था में इन सद्गुण रूपी संस्कारों से बच्चों को युक्त कर दिया जाए तो यह सब श्रेष्ठ मानवीय समाज का निर्माण करने हेतु अवश्य ही सामथ्र्यवान बनेंगे।
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