जीओ गीता के संग, सीखो जीने का ढंग
punjabkesari.in Thursday, Jul 06, 2017 - 01:47 PM (IST)
कर्म त्याग नहीं, त्याग भाव से कर्म
सप्तश्लोकी गीता (३)
गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानंद जी
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:। शरीर यात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।। —गीता 3/8
नियतम् कुरु, कर्म, त्वम, कर्म, ज्याय:, हि, अकर्मण:, शरीरयात्रा, अपि, च, ते, न, प्रसिद्धध्येत्, अकर्मण:।।
कर्म कर नियत तू समझ अपना धर्म, कर्म त्याग से श्रेष्ठ करना है कर्म।
करेगा अगर न तूं कर्मों को ही, न चल पाएगा तब यह तन तेरा भी।।
भावार्थ :
कर्म त्याग गीता को कतई स्वीकार नहीं। स्पष्ट संकेत-कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म छोडऩे से शरीर की यात्रा आगे बढ़ ही नहीं सकती। कर्म तो करना है। अपने नियत निर्धारित कर्म को अच्छे ढंग से करें! कर्म के प्रति प्रमाद, आलस्य, कामचोरी का भाव नहीं।
भगवद्गीता की इस अद्भुत वैश्विक गीता-प्रेरणा को ध्यान से देखें, पढ़ें और समझें। अनेक भ्रांतियों का निराकरण और अनेक प्रश्रों का अपने आप में उत्तर लिए हुए है यह श्लोक।
प्राय: मान लिया जाता है कि गीता कर्म त्याग का ग्रंथ है। वस्तुत: इस ग्रंथ के 700 श्लोकों में एक भी शब्द ऐसा नहीं, जहां कर्म त्याग की बात हो। गीता ने तो यह कहा कि अपने-अपने निर्धारित कर्म को अच्छे ढंग से करो।
कर्म न करने से तो शरीर निर्वाह भी ठीक ढंग से नहीं होगा। इस श्लोक को देखें कितना स्पष्ट संकेत, कर्म के प्रति कितनी सजग प्रेरणा! गीता ने कर्म के प्रति उदासीनता, निष्क्रियता को त्यागने की बात कही क्योंकि प्रमाद, आलस्य, कामचोरी, कर्म में कोताही लापरवाही इस ग्रंथ को कतई स्वीकार नहीं।
‘शिक्षा देना अपने आप में बहुत श्रेष्ठ कार्य है। भगवान ने मुझे अनेकानेक बच्चों को शिक्षित करके उनके जीवन निर्माण का दायित्व दिया है- यह मेरा सौभाग्य है।’
ऐसी अनुभूति, ऐसा मधुर प्रेरक एहसास भीतर लाएं। यह एहसास जहां आपके भीतर की उच्चता, श्रेष्ठता को जागृत करेगा, वहीं अपने कर्तव्य को और अच्छे ढंग से करके न जाने कितने बच्चों की अच्छी पढ़ाई और साथ-साथ अच्छे जीवन निर्माण में सहयोगी बनेगा- इसे व्यावहारिक जीवन में आजमाएं। आपका अपना अनुभव आपको प्रमाण देगा- कितना व्यावहारिक है गीता- उपदेश, कितना सार्थक, प्रासंगिक, मानवीय मूल्यों पर आधारित एवं साथ ही आवश्यक है आज गीता ज्ञान!
(क्रमश:)