दीपावली: घर के आसपास अधिक जरूरी है प्रकाश

punjabkesari.in Monday, Oct 16, 2017 - 09:56 AM (IST)

दीपावली और प्रकाश का अन्योन्याश्रित संबंध है। प्रकाश के अभाव में कैसी दीपावली? स. ही. वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की एक कविता है ‘घर’। ‘घर/ मेरा कोई है नहीं/ घर मुझे चाहिए/ घर के भीतर प्रकाश हो/ इसकी मुझे चिंता नहीं/ प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो/ इसकी मुझे तलाश है।’


सबको प्रकाश की तलाश होती है। वेदों में भी यही ध्वनि प्रतिध्वनित होती है कि मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। प्रकाश, सत्य और अमरता इन्हीं की कामना की गई है। ठीक भी है क्योंकि ये सभी सकारात्मक जीवन मूल्य हैं।


सकारात्मक जीवन मूल्यों के अभाव में जीवन में प्रसन्नता, खुशी अथवा आनंद असंभव है लेकिन क्या मात्र हमारे घर में, मात्र हमारे जीवन में प्रसन्नता, खुशी अथवा आनंद का स्थायी निवास संभव है? क्या यह संभव है कि हमारे चारों ओर तो दुख, दरिद्रता, अंधकार और असत्य पसरे पड़े हों और हम प्रसन्न, सुखी, समृद्ध, उज्जवल, सत्यनिष्ठ और ज्ञानवान बने रहें? मान लीजिए हम स्वयं तो रोशनी में हैं लेकिन हमारे चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा व्याप्त है तो क्या ऐसे में हमारा सचमुच आलोकित बने रहना संभव है?


जैसे ही हम अपने प्रकाश के घेरे से बाहर निकलने का प्रयास करते हैं हमें चारों तरफ व्याप्त अंधकार डंसने को दौड़ता है। हम पुन: अपने प्रकाश के घेरे की ओर दौड़ लगाने को विवश हो जाते हैं। इस प्रकार केवल स्वयं प्रकाशित होकर भी हम एक अत्यंत संकुचित दायरे अथवा घेरे में कैद रहने को हो जाते हैं। कवि ठीक ही कहता है कि जब वह प्रकाश के घेरे के भीतर बने घर की तलाश की कामना करता है। वास्तव में हमारे पास का प्रकाश उतना महत्व नहीं रखता जितना हमारे आसपास का प्रकाश। यदि हमारे आसपास प्रकाश होगा तो यह स्वाभाविक ही है कि उस प्रकाश का लाभ हमें भी मिल जाएगा।


चांदनी रात में ही नहीं, अंधेरी रात में तारों भरे आकाश का प्रकाश भी कितना सुकून, कितना आनंद देता है। यह बताने की आवश्यकता नहीं। कभी अंधेरे में खड़े होकर आसपास की रोशनी को निहारने का प्रयास तो कीजिए, अवश्य आनंद आएगा। अब प्रकाश को ही ले लीजिए, इसके भी अनेकानेक निहितार्थ हैं। प्रकाश तो प्रतीक है। प्रकाश प्रतीक है खुशी का, आनंद का, समृद्धि का, ज्ञान का। यदि हमारे आसपास खुशी, आनंद, समृद्धि और ज्ञान का भंडार है तो क्या उससे हमें कोई नुकसान होगा? कदापि नहीं। यदि हमारे आसपास के लोग सुखी-समृद्ध हैं तो इससे देर-सवेर न केवल हम स्वयं सुखी और समृद्ध हो जाते हैं अपितु सुरक्षित भी हो जाते हैं। 


यदि आपके मित्र और रिश्तेदार अच्छी हैसियत के मालिक हैं तो आप जैसा सुखी इंसान नहीं। वे आपको बेशक अपनी समृद्धि में शरीक न करें लेकिन आपको कष्ट तो नहीं देंगे। 
यदि हम सकारात्मक सोच से युक्त हैं तो हम उनसे प्रेरणा और प्रोत्साहन लेकर स्वयं भी आगेे बढ़ सकते हैं। 


जो लोग दूसरों की सुख-समृद्धि में आनंद पाते हैं वे उन लोगों से बहुत अच्छे हैं जो दूसरों की सुख-समृद्धि से ईर्ष्या करते हैं। ईर्ष्या तो हमारे विवेक को ऐसे नष्ट करती है कि हम स्वयं अपने उद्धार से विमुख होने लगते हैं। सीधी-सी बात है यदि समाज में सुख-समृद्धि का स्तर बढ़ता है तो सारा समाज लाभान्वित होता है। हम स्वयं भी उस लाभ से वंचित नहीं रहेंगे, यह भी निश्चित है।    

 


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