माता-पिता, गुरु एवं श्रेष्ठजनों के प्रति कर्तव्य

punjabkesari.in Tuesday, Feb 20, 2018 - 06:08 PM (IST)

हमारे धर्म शास्त्रों में मनुस्मृति का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है और इसके रचयिता राजर्षि मनु के विचार सर्वमान्य हैं। माता-पिता, गुरुजनों एवं श्रेष्ठजनों को सर्वदा प्रणाम, सम्मान और सेवा करने के संबंध में मनुस्मृति का (2/121) का यह श्लोक अनुकरणीय है-


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। 
चत्वारि तस्य वद्र्धन्ते आयुॢवद्या यशोवलम्।। 

अर्थात: वृद्धजनों (माता-पिता, गुरुजनों एवं श्रेष्ठजन) को सर्वदा अभिवादन प्रणाम तथा उनकी सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं। 


मनुस्मृति के एक अन्य श्लोक (2/145) में माता-पिता और आचार्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। 

उपाध्यायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते।।

 
अर्थात: दस उपाध्यायों से बढ़कर एक आचार्य होता है, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता होता है और पिता से हजार गुणा बढ़कर माता गौरवमयी होती है। उक्त दोनों श्लोक में माता-पिता, गुरु एवं श्रेष्ठजनों की महिमा स्पष्ट होती है। ये तीनों हमारे प्रत्यक्ष देवता हैं। इसलिए इन विभूतियों की तन-मन-धन से सेवा करना हमारा कर्तव्य है, इनको सदैव संतुष्ट और प्रसन्न रखना ही हमारा धर्म है। मनुस्मृति के अतिरिक्त हमारे अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी माता-पिता, गुरु एवं श्रेष्ठजनों को पूजनीय माना गया है। इन तीनों को सदैव सुखी रखना ही हम सभी का कर्तव्य है। 


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