शास्त्र कहते हैं ये काम पुत्र न करें तो, जीवात्मा की मुक्ति नहीं होती

punjabkesari.in Friday, Feb 17, 2017 - 11:55 AM (IST)

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि व्यक्ति की मरणोपरांत दाह संस्कार एवं पिंड दान का कार्य तथा उसके उपरांत प्रतिवर्ष श्राद्ध आदि कार्य पुत्र के द्वारा ही किए जाने चाहिए अन्यथा व्यक्ति (जीवात्मा) की मुक्ति नहीं होती। हमारे यहां शादी का उद्देश्य मात्र शारीरिक सुख नहीं बल्कि गृहस्थ जीवन का सफल संचालन एवं वंशवृद्धि के लिए संतान की उत्पत्ति करना भी होता है। जीवन के सात सुखों में संतान सुख भी विशेष स्थान रखता है। जहां एक ओर शास्त्रों की मान्यता के अनुसार पितृ ऋण से उऋण होना जरूरी है वहीं देखा जाए तो आंगन में बच्चे की किलकारियां परिवार को व्यस्त कर देती हैं व ईर्ष्या-द्वेष मिटाकर प्यार का संचार करती हैं। 


कहीं तो संतान होती ही नहीं और कहीं संतान चरित्र हीन, दुष्ट, आवारा हो जाए तो भी माता-पिता के लिए अपमानजनक स्थिति हो जाती है। बारह प्रकार के कालसर्प योगों में पदम नामक कालसर्प योग कुंडली के पंचम भाव से संबंधित है। पंचम भाव संतान, शिक्षा, पूर्वजन्म के कर्म आदि का भाव है। इस योग के कारण संतान सुख में रुकावट आती है, शिक्षा  में बाधा उत्पन्न होती है और निरंतर चिंता तथा परेशानी के कारण जातक का जीवन संघर्षमय बना रहता है। आइए जानते हैं कि संतान पक्ष को कालसर्प योग किस प्रकार प्रभावित करता है।

 

समाज में संतान का होना अत्यावश्यक है, बिना संतति के जीवन लोक व परलोकार्थ सफल नहीं होता। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘पुत्रार्थे क्रियते भार्या पुत्र: पिंड प्रायोजन:’ पुत्र प्राप्ति के हेतु ही भार्या की आवश्यकता है न कि कामवासना को तृप्त करने के लिए और पुत्र के द्वारा ही उत्तर क्रिया सम्पन्न होती है। ‘अपुत्रस्यगहं शून्यम्’ व्यवहार दृष्टि से भी बिना पुत्र के घर मानो शून्य हैं। देवी भागवत में लिख दिया गया है कि ‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गे वेदविदोविदु:’ अर्थात स्वर्ग में वेदवेत्ता देवताओं ने यह निश्चय किया कि बिना संतति के प्राणी की सद्गति नहीं होती है।

 

यदि शरीर स्वस्थ है, किसी प्रकार का कोई रोग नहीं है, घर में भी सभी निरोग और स्वस्थ हैं जरूरत के अनुसार आय भी है परंतु यदि पुत्र सुख न हो तो उस व्यक्ति का पारिवारिक जीवन नरक बन जाता है जिस घर में, परिवार में वंश को आगे बढ़ाने वाला पुत्र न हो वहां सारे सुख व्यर्थ हो जाते हैं। वे लोग बहुत ही भाग्यशाली होते हैं जिन्हें सुपुत्र की प्राप्ति होती है। जो माता-पिता का आदर करता है और समाज में उनका नाम रोशन करता है। उनका वंश आगे बढ़ाता है।

 

बेटी होनहार हो सकती है, बहुत नाम कर सकती है लेकिन वह आपके वंश को आगे नहीं चला सकती। इसी प्रकार पुत्र का सबसे बड़ा कर्तव्य ही पुन: पुत्र उत्पन्न कर पितृ ऋण से मुक्त होना है। इसी  प्रकार पुत्र संतान भी हो लेकिन कपूत हो, आज्ञा नहीं मानता हो तो ऐसी संतान से निरंतर अपमान सहना पड़ता है, लोगों की शिकायतें सुननी पड़ती हैं, घर का वातावरण भी दूषित हो जाता है। समाज में जो सम्मान अर्जित किया है वह भी बर्बाद हो जाता है। जिन लोगों की ऐसी संतान होती है वे बड़े ही दुर्भाग्यशाली होते हैं। 

 

परंतु क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? क्यों किसी के लाख प्रयासों के पश्चात भी संतान नहीं होती? क्यों किसी के संतान तो होती है परंतु पुत्र की प्राप्ति नहीं होती? क्यों किसी को पुत्र की प्राप्ति तो होती है परंतु वह दुराचारी और कुपुत्र हो जाता है? इन प्रश्रों का उत्तर आपकी  कुंडली में निश्चित रूप से मिल सकता है। संभव है कि आपको उपरोक्त दोष या कष्ट आपकी कुंडली में स्थित कालसर्प योग के कारण प्राप्त हो रहे हों। बृहत्पराशर होराशास्त्र के अनुसार निम्नलिखित योगों में सर्प के शाप से संतान हानि होती है।

पुत्रस्था नगते राहौ कुजेन च निरीक्षते।
कुजक्षेत्रगते वाप सर्पशापात् सुतक्षय:।।
पुत्रेशे राहुसंयुक्ते पुत्रस्थे भानुनंदने।
चंद्रेण संयुते दुष्टे सर्पशापात् सुतक्षय:।।
कारके राहुसंयुक्ते पुत्रेशे बलवॢजते।
लग्नेशे कुजसंयुक्ते सर्पशापात् सुतक्षय:।।
कारके भौमसंयुक्ते लग्ने च राहु संयुते।
पुत्रस्थानाधिपे दु:स्थे सर्पशापात् सुतक्षय:।।

अर्थात : 
संतान भाव में स्थित राहू को मंगलपूर्ण दृष्टि से देखे अथवा राहू मेष या वृश्चिक राशि में हो।

संतान भाव का स्वामी राहू के साथ कहीं भी हो तथा पंचम में शानि हो और शनि को या मंगल को चंद्रमा देखे या उससे युति करें। 

संतानकारक अर्थात पंचम कारक गुरु राहू के साथ हो और पंचमेश निर्बल हो, लग्नेश व मंगल साथ-साथ हों।

गुरु व मंगल एक साथ हों, लग्न में राहू स्थित हो, पंचमेश छठे आठवें या 12वें घर में हो।

उपर्युक्त सभी सर्प शाप के योग हैं, जिनसे जातक को संतान कष्ट होता है।

 

भौमांशे भीमसंयुक्ते पुत्रेशे सोमनंदने।
राहुमांदियुते लग्ने सर्पशापात् सुतक्षय:।
पुत्रभावे कुजक्षेत्रे पुत्रेशे राहुसंयते।
सौम्यदुष्टे युते वापि सर्पशापात सुतक्षय:।।
पुत्रस्था भानुमंदारा: स्वर्भानुशशि जोडंगिरा:।
निर्बलौ पुत्रलग्नेशौ सर्पशापात् सुतक्षय:।।
लग्नेशे राहुसंयुक्ते पुत्रेशे भौमसंयुते।
कारके राहुयुक्ते या सर्पशापात् सुतक्षय:।।

अर्थात : 
संतान भाव में 3.6 राशियां हों, मंगल अपने ही नवांश में हो, लग्न अपने ही नवांश में हो, लग्र में राहू व गुलिक हो। 

संतान भाव में 1.8 राशियां हों, पंचमेश मंगल राहू के साथ हो अथवा संतानेश मंगल से बुध की दृष्टि या युति संबंध हो।

संतान भाव में सूर्य, शनि या राहू, बुध, गुरु एकत्र हों और लग्नेश व पंचमेश निर्बल हों। 

लग्नेश व राहू एक साथ हों, संतानेश व मंगल और गुरु व राहू एक साथ हों। उपर्युक्त योगों में भी सर्प शाप से संतान नहीं होती अथवा जीवित नहीं रहती। बृहत्पराशर होरा शास्त्र में सर्प शाप का शांति विधान इस प्रकार है 

 

ग्रहयोगवशेनैवं नृणां ज्ञात्वाऽनपत्यता।
तद्दोष परिहारार्थ नागपूजां च कारयेत्।।
स्वगृहयोक्तविधानेन प्रतिष्ठां कारयेत् सुधी:।
नागमूॢत सुवर्णेन कृत्वा पूजां समाचरेत्।।
गोभूतिलहिरण्यादि दद्याद् वित्तानुसारत:। 
 एवं कृते तु नागेंद्र प्रसादाद् वर्धते कुलम्।।

अर्थात सर्प शाप से मुक्ति के लिए नागपूजा अपनी कुल परम्परा के अनुसार करें। नागराज की मूर्ति की प्रतिष्ठा करें अथवा नागराज की सोने की मूर्ति बनाकर प्रतिदिन पूजा करें। तत्पश्चात गोदान, भूमिदान, तिलदान, स्वर्णदान अपनी सामर्थ्य के अनुसार करें। उपरोक्त विवरण से आप समझ सकते हैं कि काल सर्पयोग के कारण जातक को जीवन भर संतान का सुख नहीं मिल पाता और यदि संतान प्राप्त हो भी जाए तो वह दुख देने वाली होती है। समय रहते यदि इन दोषों के विवरण हेतु उचित उपाय अपना लिए जाएं तो जीवन में अच्छी संतान का सुख प्राप्त किया जा सकता है।

 

(राजा पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित ‘संतान सुख’ से साभार)


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