जनजीवन में खुशहाली लाने वाला नेता ही लोकप्रिय होता है

punjabkesari.in Tuesday, Jan 03, 2017 - 12:14 AM (IST)

जब किसी नेता की लोकप्रियता आंकने की बात चलती है तो उसकी कारगुजारी का क्या महत्व होता है? विवेक का तकाजा है कि जो नेता अपने  लोगों के जीवन में खुशहाली लाता है वह लोकप्रिय भी होगा। लोकतांत्रिक नीतियों में यही सबसे महत्वपूर्ण एकमात्र सम्पत्ति होने का आभास देता है। यही कारण है कि पाॢटयां तब बार-बार सत्ता में लौटने के योग्य होती हैं जब देश में उच्च आॢथक वृद्धि का दौर चल रहा हो।

विशेषज्ञों के अनुसार यही एक कारण है कि गत दो दशकों दौरान बहुत से नेता कथित एंटी इन्कम्बैंसी को ठेंगा दिखाने में सफल हुए हैं। ऐसे नेताओं की बात चलते ही ओडिशा के नवीन पटनायक, बिहार के नीतीश कुमार, मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान, पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी हमारी आंखों के सामने आ जाते हैं।

वे ऐसे समय में सत्तासीन और कत्र्ता-धर्ता रहे हैं जब उनके राज्यों में अपेक्षाकृत अधिक तेजी से विकास हुआ है। इसी के कारण वे एंटी इन्कम्बैंसी को पटखनी देने में सफल रहे हालांकि यह उनके लिए एक सशक्त राजनीतिक चुनौती थी। वे बार-बार सत्ता में लौटते रहे हैं।

इसके विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि जो नेता अच्छी कारगुजारी (खासतौर पर अर्थव्यवस्था के मामले में) दिखाने में सफल नहीं होते, उन्हें जनता दंडित करती है। मतदाता यह उम्मीद करते हैं कि उनका नेता उनके जीवन में बढ़ी हुई खुशहाली के रूप में कुछ न कुछ बदलाव जरूर लाए। इस सिद्धांत के साथ समस्या यह है कि इसके समर्थन में कोई भी आंकड़े मौजूद नहीं।

ऐतिहासिक रूप में 2004 से 2014 के बीच भारत में उच्चतम आॢथक वृद्धि का साक्षात्कार किया लेकिन इस एक दशक दौरान सत्तासीन रही कांग्रेस पार्टी लोकसभा के चुनाव में बिल्कुल बुरी तरह पराजित हुई और इतिहास में सबसे कम सांसद संख्या ही हासिल कर पाई। कहा जा सकता है कि इस चुनाव को अन्य कारकों ने भी प्रभावित किया था। दो स्पष्ट कारक थे मनमोहन सिंह सरकार पर भ्रष्टाचार का कलंक तथा नरेन्द्र मोदी एवं उनके आक्रामक चुनावी अभियान की मौजूदगी

इसीलिए हम देख सकते हैं कि 2014 के चुनाव एक अपवाद थे। दुर्भाग्यवश इससे पूर्व के आंकड़े तो इससे भी अधिक दयनीय हैं। वृद्धि का दूसरा उच्चतम दौर 2004 तक के वाजपेयी के 5 वर्षों के शासन दौरान हासिल हुआ था। वह अपनी जीत के प्रति इतने अधिक आशान्वित थे कि उनका चुनावी अभियान ऐन उस समय छेड़ा गया था जब ‘इंडिया शाइङ्क्षनग’ का प्रचार युद्ध शीर्ष पर था। लेकिन वाजपेयी भी पराजित हो गए थे और कोई भी उनके पराजय के कारणों को नहीं समझ सका था।

ऐसी अटकलबाजियां लगाई गई थीं कि भारतीय जनता पार्टी का यह आत्मविश्वास यथार्थ पर आधारित नहीं था कि उन्होंने भारत को आॢथक रूप में समृद्ध बनाया है। ऐसे में यह पूछा जा सकता है कि यदि वाजपेयी ने सचमुच कुछ करके दिखाया होता तो क्या वह जीत गए होते? 
इसके उत्तर में  मैं कहूंगा कि ‘नहीं’।

उनके शासन से पूर्व के दशक इस तथ्य के गवाह हैं कि भारत उपमहाद्वीप में चुनावी विजय के लिए आॢथक मोर्चे पर अच्छी कारगुजारी कोई अनिवार्य शर्त नहीं। 50 और 60 के दोनों दशकों दौरान जी.डी.पी. की वृद्धि की दृष्टि से कांग्रेस की आॢथक मोर्चे पर कारगुजारी बिल्कुल घटिया थी। 3 प्रतिशत से कम की जिस वाॢषक वृद्धि दर को अर्थशास्त्र की भाषा में ‘हिन्दू विकास दर’ का उलाहना दिया जाता है वह इसी दौर से संबंधित है। फिर भी कांग्रेस उस समय शानदार चुनावी जीत दर्ज करती रही है।

आज हम जिसे ‘उत्कृष्ट गवर्नैंस’ की संज्ञा देते हैं उन दिनों इसकी न तो कहीं चर्चा होती थी और न ही यह कहीं दिखाई देती थी। तो क्या यह माना जाए कि 1960 के दशक की तुलना में हम बिल्कुल नया राष्ट्र बन चुके हैं? मैं कहूंगा, कदापि नहीं। ऐसे देश जो खासतौर पर भारत जितने प्राचीन हैं वहां इतनी जल्दी नाटकीय परिवर्तन नहीं होते। इसलिए इस बात की कोई खास संभावना नहीं कि चुनावों में हम मुख्यत: पार्टी और नेता की आॢथक मोर्चे पर कारगुजारी को पुरस्कृत करते हैं। इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।

लेकिन आज यदि हम इसकी चर्चा करते हैं तो इसका कारण यह है कि 2017 में नरेन्द्र मोदी की पार्टी की चुनावी सम्भावनाओं को नोटबंदी से पैदा हुआ वर्तमान संकट किस तरह प्रभावित करेगा। पहले यू.पी. और फिर पंजाब व गोवा जैसे छोटे राज्यों और बाद में गुजरात में भाजपा को काफी बड़ी चुनावी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।

पार्टी के विरोधियों को आशा है कि मोदी के शासन में आॢथक मोर्चे पर कोई उल्लेखनीय कारगुजारी देखने को नहीं मिलेगी और ऊपर से नोटबंदी से पैदा हुआ संकट सम्भवत: मोदी को हराने का काम करेगा।

मेरा मानना है कि यह गणित इतना सरल नहीं। विश्वसनीयता, करिश्मा (जलवा) एवं लोकचर्चा अभी भी मोदी के पक्ष में हैं। कुछ मतदाताओं की असंतुष्टि को आक्रोश में बदलने के लिए विपक्ष को बहुत भारी मशक्कत करनी होगी।

यह उम्मीद तो किसी भी कीमत पर नहीं लगाई जानी चाहिए कि यदि नोटबंदी का दुष्प्रभाव फरवरी तक भी जारी रहता है तो जीत अपने आप ही मोदी विरोधियों की झोली में आ जाएगी। यहां तक कि यदि हम यह भी मान लें कि अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित होगी और अंधाधुंध नोटबंदी के कारण कुछ तिमाहियों के लिए जी.डी.पी. नीचे आ जाएगी तो भी यह मोदी की लोकप्रियता को कम करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं बन सकेगी।

आर्थिक मोर्चे पर बिना किसी उल्लेखनीय कारगुजारी के ऐन जिस प्रकार नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने भारतीय मतदाताओं पर अपना जलवा कायम रखा है, ऐन उसी तरह जिस प्रकार जुल्फिकार अली भुट्टो और उनकी बेटी बेनजीर ने पाकिस्तान की जनता को अपने मोहपाश में बांधे रखा, उसी प्रकार की आशा मोदी से भी की जानी चाहिए। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं होगी यदि 2017 में भी भाजपा अपना विजयी अभियान जारी रखे।


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News