किशोरी अमोनकर का साक्षात्कार सबसे मुश्किल काम होता था

punjabkesari.in Friday, Apr 07, 2017 - 10:51 PM (IST)

किशोरी अमोनकर के देहावसान का समाचार पढ़ते ही मैंने देश के अग्रणी पत्रकार रघुराय को फोन लगाया। हम दोनों ने मिलकर किशोरी अमोनकर के जीवन पर कभी बहुत लाजवाब फोटो फीचर तैयार किया था। अब फिर हमारे दौर की इस महानतम शास्त्रीय संगीतकार के बारे में उन तस्वीरों को प्रकाशित करने का मौका आ गया था। 

संगीत के पारखी किशोरी अमोनकर और उस्ताद आमिर अली खान को एक ही रुतबा प्रदान करते हैं। लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर मेरी वरीयता अमोनकर के पक्ष में है। लेकिन रघुराय की प्रतिक्रिया तो सदमा लगाने जैसी है, जब वह कहते हैं कि भारतीय मीडिया में कला और संगीत के लिए कोई जगह ही नहीं है। 

एक पल के लिए मैंने खुद को इस भ्रम में डाल लिया कि इतनी प्रतिभाशाली गायिका के देहावसान पर मीडिया में उसके बारे में बेहतरीन ढंग से प्रस्तुति देने की होड़ लग जाएगी। लेकिन ऐसा करते समय मैं भूल गया था कि काफी हद तक हमारे प्रिंट मीडिया और फल-फूल रहे टी.वी. चैनलों में संस्कृति और कला के आतिथ्य के लिए कोई जगह नहीं। वैसे यह कोई नई बात नहीं। यह सच है कि जब तक किशोरी अमोनकर के स्वर्गवास होने का समय आया, शास्त्रीय संगीत काफी हद तक अखबारों के प्रथम पन्नों पर स्थान हासिल करने में सफल हो गया था। 

गत 25 वर्षों दौरान आमिर खान, भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, हीराबाई बड़ोदेकर, मल्लिकार्जुन मंसूर, अली अकबर खान, विलायत खान, रवि शंकर, निखिल बनर्जी जैसी हस्तियों के स्वर्गवास पर काफी हद तक प्रभावशाली श्रद्धांजलियां प्रकाशित होती रही हैं और इस दुनिया से उन्होंने किसी अनजान व्यक्ति की तरह प्रस्थान नहीं किया। 

फिर भी हमारे देश में जानकार संगीत आलोचकों की परम्परा कभी भी अस्तित्व में नहीं आ सकी। आल इंडिया रेडियो के दिवंगत महानिदेशक डा. नारायण मैनन ने अपने कार्यकाल दौरान एक सैमीनार आयोजित किया था जिसमें महान वायलन वादक यहूदी मैनुहिन ने अपने सामने बैठे संगीतकार निकोलस नैबाकोफ की ओर इशारा करते हुए कहा था, ‘‘जब श्रोताओं में निकोलस बैठे हों तो मेरी कारगुजारी को चार चांद लग जाते हैं।’’ लेकिन हमारे किसी कथित संगीत आलोचक को नैबाकोफ के बारे में पता ही नहीं था। वास्तव में प्रोफैशनल संगीत में असफल हुए लोग ही खुद को आलोचक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। 

रघु और मैं दोनों जब दिल्ली से प्रकाशित होने वाले स्टेटसमैन में 1965 में पहली बार पत्रकारिता के काम पर लगे थे तो इस अखबार में सिनेमा, नाटक, संगीत, नृत्य, पेंटिंग के संबंध में नियमित रूप में लिखने वाले आलोचक मौजूद थे और उस जमाने में स्टेटसमैन हिंदुस्तान का नम्बर एक अखबार हुआ करता था। नारीवाद का फैशन प्रचलित होने से बहुत पहले अमिता मलिक संस्कृति से संबंधित विषयों पर बहुत दमदार फीचर लिखा करती थीं। वह सिनेमा, रेडियो, शायद टी.वी. के क्षेत्र में देश की सबसे पहली आलोचक थीं।

अन्य सभी आलोचकों की तरह वह भी किसी अखबार के स्टाफ में शामिल नहीं थीं। उस जमाने में मीडिया में सांस्कृतिक परिदृश्य पर एक बहुत ही सलीकेदार हंगेरियन चाल्र्स फाबरी छाए हुए थे। उनकी एक खूबी यह भी थी कि उन्होंने भारत की महानतम नृत्यांगनाओं के साथ इश्कबाजी की थी। दिल्ली में कला और थिएटर जगत के विशेषज्ञों को प्रशिक्षित और संगठित करने में उन्होंने अग्रणी भूमिका अदा की थी। दुख की बात है कि फाबरी की मृत्यु घोर गरीबी में हुई। 

उस जमाने में जिस तरह किशोरी की माता मोगूबाई कुरदीकर का काफी नाम था उसी तरह दिल्ली के अखबार जगत में पंडित शिंगलू भी कला आलोचक के रूप में छाए हुए थे। शिंगलू की खूबी यह थी कि राजधानी में कहीं भी कोई भी संगीत या कला कार्यक्रम हो वह ऐन समय पर वहां पहुंच जाते थे और संबंधित उपसम्पादक की मेज पर ऐन समय पर उनका लिखा हुआ संक्षिप्त सा मजमून हाजिर होता था। लेकिन संगीत जगत के दिग्गज कला आलोचकों की लगभग पूरी तरह अनदेखी करते थे। कार्यक्रमों के आयोजक भी खास तौर पर महिला संगीतकारों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखते थे जैसे वे तवायफों के ग्राहकों के लिए गाने वाली हों। 

युवा किशोरी अमोनकर के संवेदनशील मन पर इस दुव्र्यवहार दृष्टिकोण का बहुत गहरा असर हुआ। उन्होंने अपनी आंखों से केसर बाई केरकर, हीराबाई बड़ोदेकर और यहां तक कि अपनी मां मोगूबाई के साथ इस तरह का व्यवहार होते देखा था। लेकिन उन्होंने इस परिपाटी का मुकाबला करने की हिम्मत दिखाई थी। एक संगीत कार्यक्रम जिसमें जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला उपस्थित थे, में किशोरी ने जमकर हंगामा मचाया था और फारूक की ओर गुस्से भरी नजरों से देखते हुए कहा था : ‘‘तुम किसी तवायफ के कोठे पर नहीं आए हो, तुम एक कलाकार के दरबार में बैठे हो।’’ किसी को इंटरव्यू देने से पहले वह पूरी तरह यह सुनिश्चित करती थीं कि वह व्यक्ति उसकी कला का रसिया यानी श्रद्धालु है या नहीं। इसीलिए उनका साक्षात्कार लेना सबसे कठिन जिम्मेदारियों में से एक होता था। 


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