धर्मनिरपेक्षता और ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ के बारे में हम इतने संवेदनशील क्यों हैं

punjabkesari.in Monday, Jan 16, 2017 - 11:45 PM (IST)

हम भारतीयों में क्या कमी है? हम धर्मनिरपेक्षता और छद्म धर्मनिरपेक्षता के बारे में इतने संवेदनशील क्यों हैं? हम राजनेताओं द्वारा दी गई इनकी परिभाषाओं पर क्यों विश्वास करते हैं? क्या हम इतने पाखंडी और नि:सहाय हैं? जब हम जाति और पंथ की बात करते हैं तो ये प्रश्न हमारे दिमाग में गूंजते हैं किंतु अब ऐसा नहीं होगा।

उच्चतम न्यायालय ने यह कहते हुए भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को मान्यता प्रदान की कि राजनेता वोट प्राप्त करने के लिए धर्म, जाति, पंथ की भाषा का उपयोग नहीं कर सकते हैं। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 4:3 के महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि कोई भी राजनेता जाति, पंथ और धर्म के नाम पर वोट नहीं मांग सकता है।

न्यायालय  ने कहा, ‘‘चुनावी प्रक्रिया की प्रकृति धर्मनिरपेक्ष है तथा संविधान के अनुच्छेद-25 के अंतर्गत व्यक्तिगत प्राथमिकता और पसंद की गारंटी दी गई है और इनका चुनाव जैसे धर्मनिरेपक्ष कार्य से कोई लेना-देना नहीं है।’’ न्यायालय ने यह भी कहा कि धर्म चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता को प्रभावित नहीं कर सकता है क्योंकि व्यक्ति और ईश्वर के बीच संबंध व्यक्तिगत पसंद पर आधारित हैं और राज्य ऐसे कार्यकलापों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश ठाकुर की अध्यक्षता वाली 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने निर्णय दिया कि यदि कोई उम्मीदवार या उसका एजैंट आदि धर्म या जाति के आधार पर वोट मांगता पाया गया तो इसे लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (3) के अंतर्गत भ्रष्ट तरीका माना जाएगा और यदि ऐसा उम्मीदवार दोषी पाया गया तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है।

वस्तुत: न्यायालय ने अपने 1995 के हिन्दुत्व निर्णय पर पुनॢवचार किया जिसमें पूर्व मुख्य न्यायाधीश वर्मा की अध्यक्षता वाली 3 सदस्यीय खंडपीठ के समक्ष यह प्रश्न था कि क्या हिन्दुत्व या हिन्दू जैसे शब्दों का प्रयोग करना ऐसे भ्रष्ट तरीकों के समान होगा। न्यायालय ने निर्णय दिया था कि हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म का उल्लेख करना मात्र भ्रष्ट तरीका नहीं होगा क्योंकि भारत में हिन्दू एक धर्म नहीं अपितु जीवन शैली है

इस निर्णय से छद्म धर्म निरपेक्षतावादी चक्र ने एक चक्र पूरा कर दिया है और अब उच्चतम न्यायालय ने उनके खेल में अड़ंगा डाल दिया है तो देखना यह है कि यह निर्णय 5 राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश में आगामी विधान सभा चुनावों को किस तरह प्रभावित करता है जहां पर धर्म और जाति की एक बड़ी भूमिका निभाए जाने  की  संभावना है।
 

क्या इस निर्णय से हमारे नेतागणों  और पाॢटयों द्वारा राजनीति करने का तरीका बदल जाएगा? शायद नहीं क्योंकि हमारे नेता चुनाव-दर-चुनाव अपनी रणनीति को जाति और सम्प्रदाय के समीकरणों के आधार पर बनाते हैं ताकि किसी राज्य या केन्द्र में  सत्ता में वापसी हो सके और इस बात को उत्तर प्रदेश में बखूबी देखा जा सकता है जहां पर सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी, भाजपा, बसपा और कांग्रेस ने यह खेल खेलना शुरू कर दिया है।

ये सभी दल टिकटों का वितरण धर्म, जाति और उपजाति के समीकरणों को ध्यान में रखकर वितरित कर रहे हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश की गद्दी पर जो भी विराजमान होगा वह राज्यसभा की संरचना को बदलेगा और 2019 में चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगा।

हमें 2015 में बिहार चुनावों में नीतीश-लालू के महागठबंधन को ध्यान में रखना होगा। इन चुनावों में मोदी के राजग ने भी वायदा किया था कि यदि वह राज्य में सत्ता में आता है तो शिक्षा और रोजगार में अधिक जातीय आरक्षण का प्रावधान करेगा।

2003 में आंध्र प्रदेश में एम.आई.एम. के विधायक ओवैसी ने 2 घंटे तक घृणा फैलाने वाला भाषण दिया था और हिन्दुओं को नपुंसक कहा था और यहां तक कह डाला कि 15 मिनट के लिए पुलिस हटा लें तो हम 25 करोड़ मुसलमान 100 करोड़ हिन्दुओं को समाप्त कर देंगे। यह बताता है कि देश में किस प्रकार विभिन्न पाॢटयों द्वारा छद्म धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया जा रहा है।

यही नहीं, उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने घोषणा की थी कि पैगम्बर मोहम्मद का कार्टून बनाने वाले डेनमार्क के कार्टूनिस्ट का जो भी सिर कलम करेगा उसे 50 लाख का ईनाम दिया जाएगा। तब हमारे धर्म निरपेक्षतावादी नेता मौन क्यों रहे? समाजवादी पार्टी की अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति नर्मी सर्वविदित है और इसीलिए उसके नेताओं ने 2008 में एक बहादुर पुलिसकर्मी द्वारा इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों को मारने को फर्जी मुठभेड़ बताया था।

ऐसी घटना पर विभिन्न पाॢटयों द्वारा तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाती है और उसका कारण यह है कि इस बारे में दिए गए बयान पहले से अनेक नेताओं द्वारा दिए गए बयानों से भिन्न नहीं होते हैं। इससे स्पष्ट है कि हमारे देश में साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है जिसमें हमारे नेताओं ने जाति और पंथ को भारतीय राजनीति की मुख्य शक्ति बना दिया है।

प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र में यदि जातीय राजनीति से चुनावी लाभ मिलता है तो धर्म आधारित राजनीति से मतदाताओं के धु्रवीकरण में मदद मिलती है और घृणा भरे भाषणों से विभिन्न समुदायों में विद्वेष बढ़ता है और उनकी भावनाएं भड़कती हैं।

साम्प्रदायिक और जातीय राजनीति तब कुछ हद तक सही भी मानी जाती जब इससे कम से कम किसी विशेष समुदाय की जीवन की गुणवत्ता में सुधार आता, किंतु इससे तो केवल घृणा की राजनीति का प्रसार होता है और गत दशकों में भारत का अनुभव यही रहा है और इसके विध्वंसकारी परिणाम निकले हैं। यह कहना विवाद का विषय है कि कौन धर्मनिरपेक्ष है, कौन साम्प्रदायिक और कौन जातिवादी। जब हमारी राजनीतिक विचारधारा और दृष्टिकोण वोट बैंक की राजनीति से निर्देशित होता है तो फिर सब कुछ एक ही रंग से रंग दिया जाता है।

देश में किसी भी व्यक्ति को विभिन्न लोगों, जातियों और समुदायों के बीच घृणा फैलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए चाहे वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, जैन, दलित, कट्टरवादी हिन्दू, कट्टरवादी मुसलमान क्यों न हो। ये सभी राष्ट्र को नुक्सान पहुंचाएंगे क्येंाकि राष्ट्र का कोई धर्म और जाति नहीं होती है। इसलिए हमारी नैतिकता भी चयनात्मक नहीं होनी चाहिए अपितु यह न्यायप्रिय, सम्मानजनक और समान होनी चाहिए।

भारत की त्रासदी यह है कि यहां के राजनेता चाहते हैं कि यह खेल जारी रहे। वे यह भूल जाते हैं कि राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप रहस्यवादी नहीं है।

राज्य से अपेक्षा की जाती है कि वह सभी धर्मों और सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करे किंतु हमारे राजनेता अलगाववाद के माध्यम से राजनीतिक निर्वाण प्राप्त करने के प्रयासों में इतने व्यस्त हैं कि वे स्वयं को, मतदाताओं को और इतिहास तक को भी भ्रमित कर देते हैं और धर्म का उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए करते हैं। उच्चतम न्यायालय ने एक बार पुन: राह दिखा दी है और अब निर्वाचन आयोग इस निर्णय को लागू कर सकता है। समय आ गया है कि हिन्दू धर्म को भी जातिवाद से मुक्त किया जाए।

कुल मिलाकर किसी भी कीमत पर सत्ता की लालसा रखने वाले हमारे राजनेताओं को वोट बैंक की राजनीति से परे सोचना होगा और साम्प्रदायिक तथा जातीय राजनीति के खतरनाक परिणामों को समझना होगा।  


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