मोदी की ऐतिहासिक इसराईल यात्रा
punjabkesari.in Tuesday, Jul 11, 2017 - 12:22 AM (IST)
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने इसराईल की 3 दिवसीय चर्चित यात्रा संपन्न की। आने वाले दिनों में राजनीतिक पंडित एवं विश्लेषक उनकी इस यात्रा की समीक्षा एवं विवेचना करेंगे। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि भारत की स्वतंत्रता के बाद पिछले 70 वर्षों में यह भारत के किसी भी प्रधानमंत्री की पहली इसराईल यात्रा रही। इसराईल के साथ भारत के पूर्ण कूटनीतिक संबंध स्थापित होने के 25 वर्ष पूरे होने पर इस यात्रा का होना इसे अधिक प्रासंगिक बनाता है।
भारत में एक स्वस्थ परंपरा रही है कि विदेश नीति के क्षेत्र में सरकार जो भी निर्णय करती है विपक्ष उसका अनुचित विरोध नहीं करता। किंतु यह पहली बार हुआ कि दौरा समाप्त होने से पहले ही केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री विजयन, सांसद ओवैसी ने सीधे शब्दों में इस दौरे की निंदा की तथा कांग्रेस ने परोक्ष रूप से फिलस्तीन के साथ संबंधों की दुहाई देते हुए इस पर सवाल खड़े किए। यह हास्यास्पद ही है कि केरल के मुख्यमंत्री प्रदेश के युवकों के आई.एस.आई.एस. में जाने से चिंतित नहीं हैं, न ही उन्हें चीन की धौंसबाजी व घुसपैठ पर कोई आपत्ति है, लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते वह प्रधानमंत्री के दौरे तथा भारत इसराईल संबंधों पर ऐसी टिप्पणी कर रहे हैं जो किसी मुख्यमंत्री को शोभा नहीं देता।
यदि भारत-इसराईल संबंधों को देखें तो ये सदियों पुराने हैं। लगभग 1800 वर्ष पूर्व यहूदी साम्राज्य के पतन के बाद जब यहूदियों पर अत्याचार शुरू हुआ तो उन्होंने दुनिया के कई देशों में पलायन किया। कुछ यहूदी केरल के तट पर भी उतरे तथा उनके वंशज आज भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश था जहां उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता भी प्राप्त हुई तथा भेदभाव व अत्याचार भी सहना नहीं पड़ा।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब ब्रिटेन ने मध्य पूर्व में यहूदियों के स्वाभाविक दावे के अनुरूप एक अलग देश बनाने की दिशा में कदम उठाया तो तत्कालीन कांग्रेस पार्टी जो महात्मा गांधी व पंडित नेहरू के नेतृत्व में मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर चलती थी, ने इसका खुला विरोध किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गोलवलकर तथा हिंदू महासभा के नेता व प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर ने मुखर सार्वजनिक समर्थन इस नए बनने जा रहे यहूदी राष्ट्र को दिया।
सन 1948 में इसराईल की स्थापना के समय तथा 1950 में संयुक्त राष्ट्र में उसकी सदस्यता के समय भी तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसका विरोध किया। शीतयुद्ध काल में नेहरू-गांधी परिवार का शासन देश में रहा तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन के कारण भारत की विदेश नीति फिलस्तीनी प्रभाव में रही। 80 और 90 के दशक में श्वेत श्याम टी.वी. पर यह दृश्य बहुत आम था जब फौजी वर्दी में यासर अराफात को एक राष्ट्राध्यक्ष जैसा सम्मान भारत में प्राप्त होता था। पी.वी. नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने पर आर.एस.एस. के वरिष्ठ नेता श्री भाऊराव देवरस तथा भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष श्री एल.के. अडवानी के प्रयासों से इसराईल-भारत संबंधों की समीक्षा हेतु एक मंत्री समूह बना, जिसके फलस्वरूप 1992 में इसराईल से भारत के पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित हुए।
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 6 वर्षों तक चली एन.डी.ए. की सरकार के समय पहली बार 2003 में इसराईल के प्रधानमंत्री शिमोन पैरेज ने भारत की यात्रा की। भारत के वरिष्ठ मंत्री एल.के. अडवानी एवं जसवंत सिंह भी इसराईल के दौरे पर गए। पिछले दशकों में भारत-इसराईल में व्यापारिक, तकनीकी एवं सामरिक आदान-प्रदान बढ़ा है। इसराईल संकट के समय, चाहे वह कारगिल युद्ध हो या आतंकवाद के विरुद्ध अभियान, हमेशा भारत का सच्चा मित्र साबित हुआ है। मोदी की इस यात्रा में कृषि, तकनीकी एवं अंतरिक्ष के क्षेत्र में समझौते हुए हैं।
संयुक्त अनुसंधान हेतु 4 करोड़ डालर का कोष बनाया गया है। दोनों प्रधानमंत्रियों ने आतंकवाद की चुनौती का मिलकर सामना करने का आह्वान किया है तथा प्रधानमंत्री मोदी ने इसराईल में बसे भारतीय मूल के यहूदियों के लिए ओवरसीज सिटीजन्स ऑफ इंडिया (ओ.सी.आई.) कार्ड की सुविधा का ऐलान किया, जिसके द्वारा वे बेरोक-टोक भारत आ सकेंगे। किंतु इस दौरे की सफलता इस बात में अधिक है कि इसने दोनों देशों के शासकों तथा जनता में सद्भाव एवं विश्वास पैदा किया। इसराईल के प्रधानमंत्री का अपनी पूरी कैबिनेट के साथ हवाई अड्डे पर प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत करना तथा 3 दिन तक मोदी के हर कार्यक्रम में उपस्थित रहना एवं इसराईली राष्ट्रपति का प्रोटोकोल तोड़ कर हमारे प्रधानमंत्री की अगवानी करना यह दर्शाता है कि इसराईल भारत को कितना महत्व देता है।
आज इसराईल एक अद्वितीय सैनिक शक्ति, मजबूत अर्थव्यवस्था, अद्भुत इच्छा शक्ति एवं अतुल्य राष्ट्रवाद का प्रतीक देश है। हर देशभक्त भारतीय भारत को भी इसी रूप में देखना चाहता है। प्रधानमंत्री मोदी ने इसराईल यात्रा के साथ फिलस्तीनी क्षेत्र में न जा कर यह स्पष्ट संकेत दिए हैं कि भारत की विदेश नीति भारत के सामरिक एवं आॢथक हितों पर आधारित होगी न कि खोखले आदर्शवाद या किसी के तुष्टीकरण पर।
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